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गम-ए-दिल उठाऊँ,अज़ीमत नहीं है
मगर बच निकलने की सूरत नहीं है
सुनो बख़्श दो मुझको वादों वफ़ा से
यहाँ अब किसी की जरुरत नहीं है
परेशां रहा हूँ मैं अहल-ए-सितम से
तुम्हारी भी क़ुर्बत की नीयत नहीं है
ओ महताब तू है तो ग़ज़लें हैं रौशन
वगरना सुख़नवर की अज़्मत नहीं है
सरेआम 'ब्रज' की ग़ज़ल गुनगुनाना
ये है और क्या गर मुहब्बत नहीं है
अज़ीमत-इरादा
अहल-ए-सितम-तानाशाह
क़ुर्बत-नजदीकियां
महताब-चन्दा
सुख़नवर-लेखक
अज़्मत-इज्जत
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
तहेदिल से शुक्रिया ज़नाब तस्दीक़ जी..
स्वागत संग आभार आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी..सादर
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय विजय जी..सादर
जनाब ब्रजेश कुमार साहिब ,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें।
आ. भाई ब्रजेश जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
अच्छी गज़ल कही है। आपको हार्दिक बेधाई, आदरणीय बृजेश जी।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी...
बहुत खूबसूरत अशआर ...दिल से बधाई |
आदरणीय तिवारी जी बहुत बहुत धन्यवाद...
आदरणीय डा.साहब हार्दिक आभार..
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