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कभी जरा सा मैं मुस्कुरा लूँ कभी तो दिल को करार आये
कभी तो भूले से इस चमन में उतर के फ़स्ल-ए-बहार आये
कि इससे पहले ये साँस टूटे सफ़ीना डूबे ये ज़िन्दगी का
चले भी आओ सनम कहीं से कहाँ कहाँ हम पुकार आये
बड़ी अदा से नजर झुकाये वो पूछते हैं कहाँ थे अब तक
सुनाये कैसे वो आपबीती वो ज़िन्दगी जो गुजार आये
हजार लम्हे हजार बातें जिन्हें तड़पता ही छोड़ आया
वो शाम वो गेसुओं के साये वो याद फिर बेशुमार आये
समझ न आये विदाई की भी ये रीत कैसी है प्यारे बाबुल
अभी घड़ी खेलने की आई उठाये डोली कहार आये
अभी समेटे थे हौंसले 'ब्रज' तभी ये वैरन थकान आई
हमारे जीवन में ऐसे लम्हे न जाने क्यों बार बार आये
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीय डा. साहब..
आदरणीय भाई ब्रिजेश जी ग़ज़ल पढ़कर आनंद आया ..एक शेर पर थोड़ी उलझन हुयी थी लेकिन आदरणीय समर सर की प्रतिक्रिया से शंका का निवारण हो गया ..बहुत बहुत बधाई आपको सादर
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय त्रिपाठी जी..
साहब शेर दर शेर उम्दा ग़ज़ल हुई हार्दिक बधाई आपको ।कबीर सर की इस्लाह काबिल ए गौर है ।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुरेन्द्र जी..सादर
वाह बहुत अच्छी चर्चा।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय महाजन जी..सादर
आदरणीय समर जी आज आपकी टिप्पड़ी ने मुझे प्रसन्नता से भर दिया..ह्रदय में संजो के रखूँगा आपके शब्दों को..और निश्चय ही मैं आपके बताये अनुसार सुधार करूँगा..स्नेह बनाये रखें..सादर
सादर ।
जनाब बृजेश जी ,फ़िल्मी गीतों की मिसालें मेरी नज़र में मान्य नहीं हैं,रेख़्ता पर जो ग़ज़लें आपने पढ़ी हैं वो सब या तो सही शब्द जानते नहीं या अपनी आसानी के लिए जान बूझ कर ये ग़लती कर गए,एक अच्छे और समझदार शाइर को सही शब्दों का ही इस्तेमाल करना चाहिए,प्रचलन कहकर कई लोग इस तरह की ग़लतियाँ करते हैं,लेकिन आप मेरी नज़र में ऐसे फ़नकार हैं जो ख़ूब से ख़ूब तर की तरफ़ गामज़न है, आप अपनी ग़ज़लों में सही शब्दों का ही इस्तेमाल करें ,सही शब्द "उम्र" है और आप चाहें तो इस मिसरे को इस तरह लिख सकते हैं :-
'अभी तो थी उम्र खेलने की...'
आपके विकल्प खुले हैं ।
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