इन्तिजार ....
दफ़्न कर दिए
सारे जलजले
दर्द के
इश्क़ की
किताब में
ढूंढती रही
कभी
ख़ुद में तुझको
कभी
ख़ुद में ख़ुद को
मगर
तू था कि बैठा रहा
चश्म-ए -साहिल पर
इक अजनबी बन के
मैं
तैरती रही
एक ख़्वाब सी
तेरे
इश्क़ की
किताब में
राह-ए-उल्फ़त में
दिल को
अजीब सी सौग़ात मिली
स्याह ख़्वाब मिले
मुंतज़िर सी रात मिली
यादों के सैलाब मिले
चश्म को बरसात मिली
भूल गयी ज़िंदगी
जीने का शऊर
लम्स रहे ज़िंदा
लबों को सहरा सी प्यास मिली
खोयी थी तुझमें
तुझसे मिलकर
खोयी हूँ तुझमें
तुझसे बिछुड़कर
दफ़्न कर दिये हैं वो सारे लम्हात
जिनमें जीने के लिए मरी थी मैं
अब जीने के लिए
मैंने
तेरे इश्क़ की
किताब का
वो सफ़ह
हमेशा के लिए हटा दिया
जिसकी पेशानी पे
लिखा था
इन्तिजार
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय निकोर जी, सादर प्रणाम ... सृजन में निहित भावों को आत्मीय सम्मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब ... प्रस्तुति के भावों को मान देने एवं अपने अमूल्य सुझाव से सृजन में सुधार हेतु मार्गदर्शन करने का दिल से शुक्रिया। मैं संभोधित सृजन पुनः प्रेषित करता हूँ। आपका तहे दिल से शुक्रिया।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
कुछ सुझाव हैं :-
'दफन'--"दफ़्न"
'इश्क'---"इश्क़"
'चश्म-ऐ----"चश्म-ए-"
'स्याह से ख़्वाब मिले'--"स्याह ख़्वाब मिले"
'वो सफा'--"वो सफ़ह:"
'इंतिजार'--"इन्तिज़ार"
आदरणीया नीलम उपाध्याय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का आभारी है।
आदरणीय हर्ष महाजन जी सृजन को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय सुशील सरना जी, नमस्कार । खूबसूरत रचना के लिए बधाई ।
वाह एक बेहतरीन नज़्म हुई है आदरणीय सुशील सरना जी ।
खूबसूरती से निभाया है सर ।
सादर
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