प्रपात.....
मौन
बोलता रहा
शोर
खामोश रहा
भाव
अबोध से
बालू रेत में
घर बनाते रहे
न तुम पढ़ सकी
न मैं पढ़ सका
भाषा
प्रणय स्पंदनों की
आँखों में
भला पढ़ते भी कैसे
ये शहर तो
आंसूओं का था
घरोंदा
रेत का
ढह गया
भावों को समेटे
आँसुओं के
प्रपात से
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नीलेश जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का आभारी है।
आदरणीय डॉ छोटेलाल सिंह जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
आदरणीया नीलम उपाध्याय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का आभारी है।
आ. सुशिल जी,
भावपूर्ण रचना के लिए बधाई
सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जी। बहुत सुंदर कविता ।
आदरणीय सुशील सरना जी कम से कम शब्दों में आपने प्राण फूँक दिया बहुत अनमोल बात कह दी इसके लिए बहुत बहुत बधाई
आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब , प्रस्तुति के भावों को अपने आत्मीय स्नेह से पोषित करने का तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय तेजवीर सिंह जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया का दिल से आभार।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,वाह बहुत ख़ूब, उम्दा कविता,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जी। बहुत सुंदर और समसामयिक कविता।
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