घर की सुखमयी ,वैभवता की ईटें सवारती,
धरा-सी उदारशील,घर की धुरी,
रिश्तों को सीप में छिपे मोती की तरह सहेजती,
मुट्ठी भर सुख सुविधाओं में ,तिल-तिल कर नष्ट करती,
स्त्री पैदा नही होती,बना दी जाती,
ममतामयी सजीव मूर्ति,कब कठपुतली बन गई,
लेकिन अब सजग हो जाओं,क्रान्ति दबे पांव आ गई,
अपनी कर्मठता से अस्तित्व की लकीरें खींच ली,
अपमान के खानों में सम्मान का ठप्पा लगा लिया,
विकास में साधक नही,पचास फीसदी वोट बन गई,
अब वह वस्तु परक नही,विषय परक बन गई,
हम बहू नही, बहुमत हैं,
फरमान सुन लो, समाज के ठेकेदारों,
अस्तित्व कल भी था ,आज भी हैं ,और कल भी रहेगा,
लेकिन यह भी सच हैं कि-
'औरत, औरत को न मारे,तो वो कभी न हारे'.
रचना मौलिक और अप्रकाशित हैं.
बबीता गुप्ता
Comment
सराहना करने के लिए आप सभी का सधन्यवाद.
उत्तम बहुत ही उत्तम रचना...आखरी पंक्ति संपूर्ण सार है..बधाई आदरणीया
मोहतरमा बबीता गुप्ता जी आदाब,अच्छी कविता है, बधाई स्वीकार करें ।
बेहतरीन आरंभ और बेहतरीन विचारोत्तेजक अंतिम पंक्ति के बीच बंधी '' अंतर्मन की बात सम्प्रेषित करती बेहतरीन रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद आदरणीया बबीता गुप्ता जी।
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