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उससे नज़रें मिलीं हादसा हो गया,
एक पल में यहाँ क्या से क्या हो गया ।
ख़त दिया था जो कासिद ने उसका मुझे,
"बिन अदालत लगे फ़ैसला हो गया" ।
दरमियाँ ही रहा दूर होकर भी गर,
जाने फिर क्यूँ वो मुझसे ख़फ़ा हो गया ।
गर निभाने की फ़ुर्सत नहीं थी उसे,
खुद ही कह देता वो बेवफ़ा हो गया।
दर्द सीने में ऱख राज़ उगला जो वो,
यूँ लगा मैं तो बे-आसरा हो गया ।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर जी मेरी इस ग़ज़ल पर अपना इतना कीमती समय देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया एवं आभार ।
सादर !
दूसरा मतला रख लें,बाक़ी अशआर अब ठीक हैं ।
आदरणीय समर कबीर सर आदाब । विषय वस्तु फिर से सफर कर आपके समक्ष प्रस्तुत कर हूँ । सर सुधार के चलते जो मतला बना था उसमें शुतुरबुर्गा दोष आ रहा था इसलिए थोड़ा बदलने की कोशिश की है । मतला दो तरह से कहा है ज़रा देखिएगा ।
दूसरे जो कासिद वाले मुजरे में ईता दोष बन रहा था सर इसलिये दूसरी तरह काने की कोशिश की है ।
कृति आपकी इंतज़ार में सर ।
सादर
उससे नज़रें मिलीं हादसा हो गया,
पल में जाने मुझे क्या नशा हो गया
Or
उससे नज़रें मिलीं हादसा हो गया,
एक पल में यहाँ क्या से क्या हो गया ।
ख़त दिया था जो कासिद ने उसका मुझे,
"बिन अदालत लगे फ़ैसला हो गया" ।
दरमियाँ ही रहा दूर होकर भी गर,
जाने फिर क्यूँ वो मुझसे ख़फ़ा हो गया ।
गर निभाने की फ़ुर्सत नहीं थी उसे,
खुद ही कह देता वो बेवफ़ा हो गया।
दर्द सीने में ऱख राज़ उगला जो वो,
यूँ लगा मैं तो बे-आसरा हो गया ।
***
आदरणीय समर कबीर जी आदाब ।
सबसे पहले दिली शुक्रिया । सर आपकी आमद और
बेशकीमती राय के अनुरूप इस पेशकश में जो खामियाँ
आपने चिन्हित की हैं उनमें सुधार कर इसे फिर से पेश करता हूँ
सर ।
सादर।
जनाब हर्ष महाजन साहिब आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
मतला बे रब्त है, और 'ज़लज़ला' होता नहीं आता है, संशोधित मतला यूँ कर सकते हैं:-
'उनसे नज़रें मिलीं हादसा हो गया
एक पल में यहाँ क्या से क्या हो गया'
दूसरे शैर के ऊला में "क़ासिदों" बहुवचन है, क्या बहुत सारे क़ासिद आये थे ख़त देने? इसे यूँ कर सकते हैं:-
'ख़त जो क़ासिद ने उस बेवफ़ा का दिया'
तीसरा शैर भर्ती का है, हटा दें,कुछ और कहें ।
चौथे शैर में जनाब निलेश जी का सुझाव उत्तम है।
पांचवें शैर में कौन बे आसरा हो गया? भाव स्पष्ट नहीं ।
संशोधित मत
आदरणीय महाजन जी आपका प्रयास बहुत ही उम्दा है..
नीलेश जी गुणीजनों की अदालत में ग़ज़ल के मतले को और शुतुरगुर्बा दोष को दुरुस्त कर दुबारा भेज रहा हूँ । वक़्त मिले तो ज़रा नज़र भर देखिएगा ।
सादर ।
जब निग़ाहें मिलीं ज़लज़ला हो गया,
ज़ह्र ये मेरे दर पे दवा हो गया ।
कासिदों ने दिया बेवफ़ा का जो ख़त,
"बिन अदालत लगे फ़ैसला हो गया" ।
जब सुनाया सफ़र मुफ़लिसी का मुझे
वो उबलते जिगर से रिहा हो गया ।
गर निभाने की फ़ुर्सत नहीं थी उसे,
खुद ही कह देता वो बेवफ़ा हो गया।
दर्द सीने में ऱख राज़ कहता रहा,
अर लगा मुझको बे-आसरा हो गया ।
***
आदरनीय नीलेश जी , सर एक बात तो रह ही गयी ।
जिस शेर में दोष है उसे हम यूँ भी कह सकते हैं जैसे
आपने मिसरा ठीक किया उसके साथ...काफी पसंद आया
है सर ।
गर निभाने की फ़ुर्सत नहीं थी उसे,
खुद ही कह देता वो बेवफा हो गया।
सर देखिएगा ।
आदरणीय नीलेश जी आदाब ।
आपकी ग़ज़ल पर उत्साहवर्धक टिप्पणी देखकर
कोशिशों में इज़ाफ़ा होता है ।
ग़ज़ल में जहां कमी नज़र आती है जब बताते हो तो हर बार एक नई बात
ओर सुधार लिए आगे बढ़ने का मौक़ा मिलता है ।
आपकी इस टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
सादर ।
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