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हर कली को अजब शिकायत है,
इश्क़ करना भ्रमर की आदत है ।
इश्क़ दरिया है उर समंदर भी,
जब तलक़ मुझमें तू सलामत है ।
गम से उभरा तो मैंने जाना ये,
गर है साया तेरा तो ज़न्नत है ।
किसको किसके लिए है हमदर्दी,
हर तरफ फैली बस अदावत है ।
जब धुआँ अपने घर से उट्ठे तो,
कर यकीं रिश्तों में सियासत है
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मौलिक एवं अप्रकाशित
हर्ष महाजन
Comment
आ0 हर्ष महाजन साहब बहुत सुंदर प्रस्तुति । बधाई ।
अच्छी ग़ज़ल कही है आदरणीय महाजन जी
बधाई
अच्छी ग़ज़ल कही है आदरणीय महाजन जी..सादर
आपकी आमद और अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी |
आ. हर्ष जी, सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
आदरणीय श्याम नारायन वर्मा जी शुक्रिया |
सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई। सादर, |
आदरणीय समर जी आपकी कीमती इस्लाह के लिए शुक्रिया ।
सादर ।
मतले का सानी यूँ करें:-
"इश्क़ करना.... की आदत है'
ठीक है ।
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