२१२ २१२ २१२ २१२
हम तो बस आपकी राह चलते रहे
ये ख़बर ही न थी आप छलते रहे
बादलों से निकल चाँद ने ये कहा
भीड़ में तारों की हम तो जलते रहे
हिम पिघलती हिमालय पे ज्यों धूप में
यूँ हसीं प्यार पाकर पिघलते रहे
चांदनी भाती , आशिक हूँ मैं चाँद का
सच कहूं तो दिए मुझको खलते रहे
जुल्फ की छांव में उनके जानो पे सर
याद करके वो मंजर मचलते रहे
एक दूजे को हम ऐसे देखा किये
अश्क आँखों से रुख पर फिसलते रहे
जिस तरह आसमां से है सूरज ढले
हुस्न भी हुस्न वालों के ढलते रहे
हमसफ़र है हसीं इसलिए दोस्तों
पाँव में छाले पर आशू चलते रहे
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय श्याम नारायण जी आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी रचना को आपका अनुमोदन मिला मैं ह्रदय से आभारी हूँ सादर
जनाब डॉ.आशुतोष मिश्रा जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन मतले के दोनों मिसरों में जो क़ाफ़िये आपने लिए हैं वो बाक़ी अशआर में नदारद हैं,इसलिये ग़ज़ल अभी अधूरी है,मतले को बदलने का प्रयास करें ।
तीसरे शैर के सानी मिसरे में शुतरगुर्बा दोष है, सानी मिसरा यूँ कर लें :-
'यूँ हसीं प्यार पाकर पिघलते रहे'
5वें शैर का ऊल यूँ करें :-
"एक दूजे को हम ऐसे देखा किये'
आदरणीय आशुतोष जी आदाब,
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें ।सादर |
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