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यहाँ जिंदा की है खबर नहीं यहाँ फोटो पे ही वबाल है
जो टंगी कहीं थी जमाने से खड़ा अब उसी पे सवाल है
कई जानवर रहे घूमते बिना फिक्र के बिना खौफ के
हुए क़त्ल जब कोई समझा था बड़े काम वाली ये खाल है
कई हुक्मरान हुए यहाँ सभी आँखे बंद किये रहे
कोई खोल बैठा जो आँख है सभी कह उठे ये तो चाल है
ये सियासतों का समुद्र है यहाँ मछलियों सी हैं कुर्सियां
सभी हुक्मरान सधी नजर सभी ने बिछाया जाल है
कहीं थे लहू-लुहां जिस्म ही कहीं घर जले कहीं तन मगर
रहे नेता अपनी ही घात में सभी ने कहा क्या हाल है
थे लहू से ही सने जिनके कर वो सफ़ेद पोश हैं हुक्मरान
नहीं खौफ है किसी का इन्हें रखी सबने उम्दा सी ढाल है
मौलिक व प्रकाशित
Comment
आदरणीय तेजवीर जी आदरणीय लक्ष्मण जी आदरणीय सोमेश जी आदरणीय नवीन जी रचना को आप सबका आशीर्वाद मिला मैं ह्रदय से आभारी हूँ / सादर
Samayik rajnit ko drishtigat rkhte hue achchi gazal likhi aapne
आ. भाई आषुतोष जी, सुंदर गजल हुइ है । हार्दिक बधाई ।
बहुत अच्छा प्रयास । कबीर साहब की बात महत्वपूर्ण होती है ।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी।बेहतरीन गज़ल।
आदरणीय सर आपकी इस अनमोल सलाह का ख्याल आगे से अवश्य रखूँगा और जल्दबाजी से बचने की कोशिस करूंगा।या ग़ज़ल की गलतियों पर आपका और आदरणीय नीलेश जी का थोडा और मार्गदर्शन चाहिए। आप सबके मार्गदर्शन से ही सीख रहा हूँ ।किसी एक शेर को आप दुरस्त कर दीजियर तदनुसार मैं आगे प्रयास करूंगा सादर प्रणाम के साथ
जबाब डॉ.आशुतोष मिश्रा जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
ग़ज़ल कभी आनन फानन कहने की विधा नहीं है,इसमें एक एक शब्द नाप तोल कर रखा जाता है, पहले इत्मीनान से ग़ज़ल कहें फिर एक पाठक की तरह उसका अध्यन करें,तब आप अपनी कमी ख़ुद समझ लेंगे ।
इस लाजवाब, उम्दा ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई सादर |
आदरणीय भाई नीलेश जी इस बेशकीमती मशविरे के लिए हृदय से आभारी हूँ अभी तक जितनी ग़ज़ल बड़ी बहर में लिखी हैं उसमे इस तरह की कमियां आप सभी ने पूर्व में इंगित की थी कल समाचार सुनते ही बिचार मन ने उठा और आनन् फानन में लिख कर पोस्ट कर दी लेकिन आदरणीय आपजी बात को मैं और भली तरह समझ सकूंगा आप थोडा और विस्तार से बताएं कसावट में कमी तो मुझे भी लग रही है लेकिन कैसे ठीक करू सोच रहा हूँ हार्दिक धन्यवाद के साथ सादर
आ. डॉ आशुतोष जी,
कठिन बहर पर ग़ज़ल कहने का अच्छा प्रयास हुआ है. ग़ज़ल के भाव भी बहुत अच्छे हैं लेकिन मिसरों में आवश्यक कसावट कम है.. वाक्य रचना भी थोड़ी उलझी हुई है ..
ग़ज़ल को थोडा समय और दीजिये... और शेर की जगह मिसरा कहने का प्रयास कीजिये.. मिसरा मिसरा कसता जाएगा फिर ग़ज़ल अपने आप बोलने लगेगी
सादर
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