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जो आँखों से दिखती नहीं है सभी को
मैं क्यों ढूँढ़ता हूँ उसी रौशनी को
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जो समझे मेरे दिल की सब अन-कही को
मैं क्या नाम दूँ ऐसे इक अजनबी को
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सुधारेगा कौन आपके बिन मुझे अब
मुझे डाँटने का था हक़ आप ही को
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भले रोज़मर्रा में हों मुश्किलें ख़ूब
बहुत प्यार करता हूँ मैं ज़िंदगी को
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कसौटी पे परखे जो किरदार अपना
भला इतनी फ़ुर्सत कहाँ है किसी को
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तुम्हें नूरे-जाँ भी दिखेगा इसी में
कभी ग़ौर से देखना तीरगी को
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सराबों में कब तक भटकता रहेगा
तू दे अब तवज्जोह भी ख़ुद-आगही को
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'दिनेश' अपने बारे में ही सोचता है
ये क्या हो गया है भले आदमी को
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय दिनेश जी बड़ी अच्छी ग़ज़ल आपने कही रवानी भी खूब है इस पर हुई चर्चा से कई बातें सीखने को मिली सीधी जुबान के शेर पर आपने अच्छी कोशिश की है उस पर आए सुझावों से रवानी और भी ज्यादा बढ़ गई है दिली मुबारकबाद कुबूल कीजिए
आद0 दिनेश जी सादर नमन। बढिया ग़ज़ल कही आपने। आद0 समर साहब के इस्लाह से और निखर गयी ग़ज़ल। बहुत बहुत बधाई आपको।
आ. भाई दिनेश जी अच्छी गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
वाह आदरणीय दिनेश जी सच में आपके अहसास आ०समर जी औऱआ० नीलेश जी की इस्लाह के बाद कितने मुखर होकर
उभरे हैं । बहुत खूब ग़ज़ल हुई है ।
'बता नाम क्या दूँ मैं उस अजनबी को' ..कितना मर्म है इसमें ।
बधाई ।
सादर ।
अब comments post हो रहे हैं, अजीब है। ☺
तहे दिल से आभार आ. श्याम नारायण जी। इनायत
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय निलेश सर जी। हौसला अफ़ज़ाई बहुत काम आती है।
आपके कहे अनुसार हर अनकही कर लिया है। शुक्रिया सर।
जनाब दिनेश जी आदाब,ग़ज़ल अच्छी हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
कुछ सुझाव हैं,अगर पसन्द-ए- ख़ातिर हों ।
मतले का ऊला मिसरा यूँ करें :-
'जो आँखों से दिखती नहीं है किसी को'
दूसरे शैर के ऊला के लिए निलेश जी का सुझाव बहतर है, सानी यूँ करें :-
'बता नाम क्या दूँ मैं उस अजनबी को'
तीसरे शैर का ऊला यूँ करें :-
'सुधारेगा अब कौन मुझको बताओ'
4थे शैर के ऊला में 'ख़ूब' की जगह "पर" कर लें ।
सातवें शैर का सानी यूँ करें :-
'ज़रा देख आवाज़ देकर ख़ुदी को'
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई! |
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