चरित्र - लघुकथा –
"वर्मा साहब, अपना सामान समेट लीजिये। आज और अभी आपको वृद्धाश्रम में जाना है”।
इतना कह कर वह युवक गुस्से में तेजी से निकल गया।
वर्मा जी का मस्तिष्क संज्ञा शून्य हो गया। वह सोचने पर विवश होगये कि आज उनका इकलौता पुत्र किस तरह व्यवहार कर रहा है।
कमिशनर जैसे बड़े पद से सेवा निवृत हुये करीब बारह साल हो गये। इस बीच पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया।
"आपने अभी तक पैकिंग नहीं की"? वही युवक पुनः बड़बड़ाते हुये आया|
"अचानक यह फ़ैसला, वह भी बिना मेरी रॉय जाने"?
"मि० वर्मा, आप एक परिवार के साथ रहने की विश्वसनीयता और भरोसा खो चुके हैं"।
"तुम शायद भूल रहे हो कि मैं तुम्हारा पिता हूँ"।
"मुझे याद है, इसीलिये आपको वृद्धाश्रम भेज रहा हूँ, अन्यथा अब तक आपको पुलिस को सोंप देता"।
"यह तुम क्या कह रहे हो राजीव बेटा"?
"मेरी पत्नी संगीता ने आरोप लगाया है कि जब मैं दौरे पर था आपने उसके साथ जबरदस्ती करने की चेष्टा की"?
"राजीव, यह झूठ है"?
" मुझे आपसे कोई स्पष्टीकरण नहीं चाहिये क्योंकि ऐसे आरोप आप पर नौकरी में भी लगे थे"।
"बेटा, आज तेरी माँ जीवित होती तो बता देती कि उन आरोपों में कितनी सच्चाई थी"?
"मुझे सब पता है , वह आरोप किसी यूनियन लीडर ने लगवाये थे। मगर यह मामला तो घर की बहू का है"।
वर्मा जी उस दिन को याद कर सोच में पड़ गये जब उन्होंने राजीव के प्रेम विवाह पर असहमति जताई थी।
उनको संगीता के घर का माहौल संस्कार विहीन लगा था। उसके पीछे उनके तर्क भी उचित थे।
क्योंकि शादी की किसी भी रस्म में संगीता के पिता ने सक्रियता से भाग नहीं लिया, उनकी जगह उनकी पत्नी का कोई मिलनेवाला ही सब कुछ कर रहा था।
लेकिन बेटे की खुशी और ज़िद के लिये उन्होंने यह रिश्ता क़बूल कर लिया था।
संगीता उन्हें कभी पसंद नहीं आयी क्योंकि उसका आचरण उनके प्रति भेदभाव पूर्ण रहता था।
उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद तो संगीता ने उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से चेतावनी दे दी थी कि अपना और कहीं ठिकाना ढूंढ लो वरना फिर कहीं भी रहने लायक नहीं रहोगे।
लेकिन उनको अपने बेटे पर भरोसा था इसलिये वहीं बने रहे।
हालांकि यह कोठी उनकी ही थी । चाहते तो वे बेटे बहू को ही जाने के लिये कह सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया| क्योंकि उन्हें बेटे से असीमित प्रेम था।
इसी बीच राजीव फिर से फुफकारता हुआ पिता के कमरे में आया। इधर उधर नज़र दौड़ाई।
मि० वर्मा नहीं दिखे।
उनकी मेज पर एक पत्र रखा था।
"राजीव, मैं जा रहा हूं। सदैव के लिये| जब किसी रिश्ते में अविश्वास की दीवार बन जाती है तो एक घर क्या एक शहर में भी रहना मुनासिब नहीं होता। एक पिता की हैसियत से एक मशविरा है, भविष्य में किसी गंभीर मुद्दे पर निर्णय लेना हो तो दिल से नहीं दिमाग से लेना। दिल से लिये निर्णय गलत हो सकते हैं लेकिन दिमाग से नहीं। विश्वास और अंध विश्वास में यही फ़र्क होता है”|
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय नीलम उपाध्याय जी।
आदरणीय तेजवीर सिंह जी, नमस्कार । बहुत ही बढ़िया विषयवस्तु और अच्छी सीख देती हुये लघुकथा पर हार्दिक बधाई ।
हार्दिक आभार आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी। आपकी सार गर्भित एवम विवेचनात्मक टिप्पणी बेहद उत्साह वर्धक है।
आद0 तेजवीर जी सादर अभिवादन। बढिया विषय को चुना आपने। बेहतरीन ढ़ंग से कथानक को बुनते हुए अंत किया। इस उम्दा और सीख देती लघुकथा पर आपको बधाई देता हूँ। सादर
हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब जी। आदाब।
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब,बढ़िया लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी।
हार्दिक आभार आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी।
हार्दिक आभार आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी।
पिता के वृद्धाश्रम जाने की विवशता पर एक और बढ़िया लघुकथा। हार्दिक बधाई आदरणीय तेज वीर सिंह साहिब। बढ़िया शीर्षक।
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