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मैं
आज से नहीं कहूँगा
तुम्हे साथी, मीत या हमनवां
क्योंकि अब
मैं जान गया हूँ कि
ये शब्द
बौना कर देते है
उन संबंधो
और अहसासों को
जो हमें देते रहे
जाने कब से ?
वे अज्ञात एवं रहस्यमय
अनगिन स्पंदन
जिनमें मैंने पाया
जीवन
और जीवन का अर्थ.

(मौलिक / अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by vijay nikore on May 15, 2018 at 12:32pm

कुछ ही शब्दों में कितना कुछ कह दिया ! हार्दिक बधाई, भाई गोपाल नारायन जी।

Comment by Samar kabeer on May 13, 2018 at 12:11am

जनाब डॉ.गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,बहुत उम्दा कविता हुई,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें,कुछ टंकण त्रुटियाँ देख लें ।

आजकल पटल पर आपकी सक्रियता रचना पोस्ट करने तक ही सीमित क्यों है मुहतरम?

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 12, 2018 at 12:05pm

वाह बहुत खूब आ. गोपाल नारायण जी 
बधाई 

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