वक्त आता है
चला जाता है
हमे नही लगता कि
वक्त के आने और जाने से
कुछ फर्क पड़ता है
क्योंकि हम
अपने निकम्मेपन की धुन में
ही मग्न रहते है और
बीतती जाती है उम्र
फिर एक दिन जब दर्पण
हमे चेतावनी देता है
हम रह जाते हैं
अवाक्
और भय से देखते है
अपने उजले हो चुके बाल
धंसी हई आँखें
पोपला मुख
और सारे चेहरे पर
अनगिनत वक्त के निशान
तब हम जान पाते हैं कि
वक्त हमे छूकर
यूँ ही नही गया था
वह छोड़ गया था अपना निशान
जिसे तब नही देख पाए थे हम
क्योकि वह हमेशा
आख़री दहलीज पर प्रकट होता है
हठात्
एक संवर्धित
ला-इलाज कैंसर की तरह
(मौलिक/अप्रकाशित )
Comment
वक्त की महत्वत्ता को वयां करती बेहतरीन रचना, हार्दिक बधाई आदरणीय सर जी.
वाह आदरणीय डा. साहब उत्तम कोटि की कविता...
आद0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी सादर अभिवादन। बहुत बेहतरीन भाव सम्प्रेषण। बहुत उम्दा लिखा आपने। बधाई इस प्रस्तुति पर। सादर
वाह आदरणीय गोपाल जी बहुत सुंदर। ... अंतर्मन की व्यथा का एक चुभन देता सत्य। सही बात है वक्त क्या है , ये पता ही तब चलता है जब वक्त शेष नहीं रहता। बहरहाल इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई सर। सादर नमन आपकी लेखनी को।
सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर |
जनाब डॉ.गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,बहुत उम्दा,सोचने पर मजबूर कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
कुछ टंकण त्रुटियाँ देख लें ।
आ. भाई गोपालनारायण जी, बेहतरीन रचना हुयी है । हार्दिक बधाई ।
बढ़िया बिम्ब लेकर बढ़िया शीर्षक के साथ सबक़, हिदायत व हौसला और प्रेरणा देता बेहतरीन सृजन। हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहिब।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी।बेहतरीन संदेशप्रद प्रस्तुति।
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