शहर के बड़े शिवपुरी में उस कि अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही थी, इस शिवपुरी में मैं कई बार अंतिम संस्कारों में शामिल हो चूका था| मगर जिस तरह का हजूम आज राजेंद्र मास्टर के साथ आया था, ऐसा मैंने कभी नहीं देखा था| सभी आंखें नम थी और इधर उधर चारों तरफ चीकें सुनाई दे रही थी किसी को उसके इस तरह जाने पे यकीन नहीं हो रहा था|
कोई ये कह रहा था, “क्या ऐसा भी हो सकता है, मगर दुर्घटना कब, कहाँ हो जाए कहाँ पता चलता है इसके बारे कोई कुछ नहीं कह सकता”|
“मगर बचातो जा सकता है, इसके लिए प्रबंध तो किये जा सकते हैं, यही सवाल खुद से कर रहा था”|
क्या आई मौत कि हरेक के लिए अपने ही मायने होते हैं, मैंने फिर खुद से सवाल किया ?
ऐसा उस के साथ ही हुआ क्यूँ, मगर क्यूँ हुआ ये कोई नहीं सोचता|
सोचा कब था ऐसा होगा, मगर हो गया|
यहाँ एक तरफ दुर्घटना का होना और ऊपर से पुलिस का वतीरा और भी नाराज़ कर गया था लोगों को, मगर भीड़ फिर भी चुपचाप वहाँ खड़ी, ये सब कुछ देखती रही|
पास से आवाज़ आई, “जब अब इस जहाँ में कोई एक दूसरे को पहचानता तक नहीं, कहते हैं लहू सफेद हो गया है, तब ये हजूम मुझे अचंभे में डाल रहा था|
कैसे कोई लोगों की जिन्दगी का हिस्सा बन कर जीता है, इस दुनिया में उसके मुस्कराते चेहरे की यादें खुशबु की तरह फैल गई लगती थी|
लाश को आग दी जा चुकी थी और लोग धीरे धीरे शिवपुरी से बाहर की तरफ आने लगे|
काश! यही अपनत्व की खुशबु दुनिया में फैल जाए, ऐसा सोचते हुए मैं भी शिवपुरी से भीड़ के साथ ही बाहर सड़क पर आ गया|
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब डॉ.मोहन बेगोवाल साहिब आदाब,अच्छी लघुकथा है, बधाई स्वीकार करें ।
बहुत ही सुन्दर मन के भावों से मनुष्य के जीवन की विडंबना का उउल्लेख कर वास्तविकता को प्रस्तुत किया है, बधाई स्वीकार कीजिए प्ररकाशित रचना के लिए।
जिंदगी की विडंबना है लोग उस समय साथ देने आगे नही आते जब कोई व्यक्ति जीवन की जद्दोजहद से घिरा होता है ।दार्शनिक अंदाज में लिखी गई कथा के लिये बधाई आद० मोहन बेगोवाल जी ।
..//.. कहते हैं लहू सफेद हो गया है, तब ये हजूम मुझे अचंभे में डाल रहा था|/ आकस्मिक दुर्घटना/मौत पर आकस्मिक भीड़ अचंभित ही करती है और दहशत भी पैदा कर सकती है। बहुत बढ़िया मुद्दे उभारती बढ़िया रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब मोहन बेगोवाल साहिब। लघुकथा संदर्भ में स्थान नाम आवश्यक नहीं है।
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