था उन को पता अब है हवाओं की ज़ुबाँ और
उस पर भी रखे अपने चिराग़ों ने गुमाँ और.
.
रखता हूँ छुपा कर जिसे, होता है अयाँ और
शोले को बुझाता हूँ तो उठता है धुआँ और
.
ले फिर तेरी चौखट पे रगड़ता हूँ जबीं मैं
उठकर तेरे दर से मैं भला जाऊँ कहाँ और?
.
इस बात पे फिर इश्क़ को होना ही था नाकाम
दुनिया थी अलग उन की तो अपना था जहाँ और.
.
आँखों की तलाशी कभी धडकन की गवाही
होगी तो अयाँ होगा कि क्या क्या है निहाँ और.
.
करते हैं अगर इश्क़ तो बस इश्क़ हैं करते
कुछ काम नहीं करते हैं फिर “नूर” मियाँ और.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. नादिर खान साहब
शुक्रिया आ. विजय जी
शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब.. लोकतंत्र बचाने की लड़ाई में व्यस्त था अत; आप की टिप्पणी पर देर हो गयी आने में
आभार
वाह वाह पढ़कर आनंद आ गया .... बेहतरीन ग़ज़ल कही आदरणीय नीलेश जी आपने ....
बहुत ही दिलकश गज़ल लिखी है। बधाई।
आदरणीय नीलेश जी आदाब,
लाजवाब ग़ज़ल । दिल को सुकून की बारिश देने वाली ग़ज़ल । वैसे भी मालवांचल में भीषण गरमी और उत्तर भारत में आँधी-तूफान का ज़बर्दस्त दौर चल रहा है । बाक़ी गुफ़्तगू गुणीजनों के बीच हो चुकी है । दिलु मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
शुक्रिया आ. लक्ष्मण धामी जी
आ. भाई नीलेश जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
धन्यवाद आ. हर्ष जी
आभार
शुक्रिया आ. समर सर..
ग़ज़ल पोस्ट करने के बाद कुछ विचार उठे थे इसलिए कमेंट में कह दिए,
ग़ज़ल आप के समर्थन से पूर्ण हुई..
सादर
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