अम्बर को पाती भिजवाई,
व्याकुल होकर धरती ने.
सभी जरूरी संसाधन दे,
नर को जीना सिखलाया.
मर्यादा का पालन लेकिन,
कभी कहाँ वह कर पाया.
अपने मन की बात बताई,
व्याकुल होकर धरती ने.
पर्वत छीने, नदियाँ छीनी,
बरगद, पीपल छीन लिए.
नित्य अक्ष पर घूम रही हूँ,
अपनी देह मलीन लिए.
आसमान को व्यथा सुनाई,
व्याकुल होकर धरती ने.
चीरहरण की पीड़ा कब तक,
सहना मुझको बतला दो.
अंगारों पर चलूँ कहाँ तक,
इतना मुझको बतला दो.
अपनी जलती देह दिखाई,
व्याकुल होकर धरती ने.
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
ह्रदय से आभार आदरणीय Shyam Narain Verma जी आपका
बहुत बढिया गीत रचना हुई है , बधाइयाँ , |
अतिशय आभार आपका आदरणीय Ajay Kumar Sharma जी आपका
बहुत सुन्दर रचना...
बधाई स्वीकार करें...
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