इन आँसुओं का कर्ज चुकाने आजा,
बिखरी हूँ मैं यूँ टूटकर उठाने आजा...
दिल से लगाके मुझको, यूँ न दूर कर तू
इक बार फिर तू मुझको सताने आजा....
अब लौट आ तू फिर से, इश्क की गली में
करके गया जो वादे निभाने आजा...
जो वेबजह है दर्मियाँ, उसको भुला दे
इक बार फिर से दिल को चुराने आजा...
सोती नहीं अब रात भर, तेरी फिकर में
इक चैन की तू नींद सुलाने आजा...
थमने लगीं साँसे मेरी, तेरे बिना अब
अरमान है तू दिल से लगाने आजा...
दम तोड़ दूँ बाहों मे तेरी, है तमन्ना
खुद को तू मुझपे आज लुटाने आजा...
आँखों में तुझको भर लूँ, अपनी इक नजर में
शव से मेरे तू कफ्न उठाने आजा...!!
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विजय जी नमस्कार,
गजल पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
आपकी गज़ल पढ़ कर आनन्द आया। बधाई।
आदरणीय वृजेश जी नमस्कार,
गजल पर आपकी उपस्थिति के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय तस्दीक़ जी, नमस्कार
गजल में आपकी शिर्कत के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
मैं आपके द्वारा बताई गयी त्रुटियों को सुधारने का प्रयास करूँगी ...कृपया मार्गदर्शन बनाये रखें ।
अन्तर्भावों को शब्दों का रूप देना ही बड़ी बात है आदरणीया..बाकि आदरणीय तस्दीक जी ने बताया ही है..शुभकामनाएं..
मुह तरमा रक्षीता साहिबा , ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है , आपने अरकान नहीं लिखे | मतले के हिसाब से अरकान रुबाई के हैं " मफ ऊल _मफा ईल _मफा ईलुंन _फा ". ज़्यादा तर मिसरे बहर में नहीं हैं , ग़ज़ल और वक़्त चाहती है | कोशिश किजिए ,मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं |
आदरणीया रक्षिता जी आदाब,
बहुत दिनों के बाद आपकी ग़ज़ल से रू-ब-रू होने का मौक़ा मिला । प्यार के रंग में भीगी चुनरिया की मानिंद है यह ग़ज़ल । बड़े साहस से लिखी गई ग़ज़ल । प्रेम पर लिखना इतना आसान नहीं होता । वही लिख सकता है जिसने इसकी तिश्नगी को पहले महसूस किया हो । बहुत तीव्रता है इस ग़ज़ल में । हद से गुज़रने का माद्दा भी रखती है । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद ।
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