हाँ , हमें अभी और देखना है
टूटते शहर का मंज़र
रिश्तों में उलझी संवेदनहीनता का दंश
अपनों के बीच परायेपन का अहसास
घुट घुटकर रोज़ मरना
पीढ़ियों के अंतर की गहरी खाई में गिरना
निर्मम व्यवस्था का शिकार होना
हाँ, हमें अभी और देखना है
लालच का उफनता समुद्र
अकेलेपन के चुभते काँटें
बीमार बाप के लरजते हाथ
झुर्रियों की ख़ामोशियाँ
बेचैन माँ की प्रतीक्षा
कर्कश तरंगों का शोर
विघटन की शैतानी लकीरें
भरोसे में लालच के दैत्य
ठहरा आत्मविश्वास
आवारा विचारों की श्रृंखलाएँ
समृद्धि की चिलचिलाती धूप
हाँ, हमें अभी और देखना है
हम सबको मिल बाँटकर सहना है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Comment
हार्दिक आभार आदरणीया नीलम उपाध्याय जी ।
हार्दिक आभार आदरणीय विजय निकोर जी ।
इस शीर्षक में ही कमाल की सच्चाई है,और रचना तो बस पढ़ते ही बनर्ती है। बधाई, भाई मोहम्मद आरिफ़ जी।
हार्दिक आभार आदरणीय मोहित मिश्रा जी ।
हार्दिक आभार आदरणीय बृजेश कुमार जी ।
हाँ हमें और देखना है...आदरणीय आरिफ जी बहुत ही खूब लिखा वाह
रचना पर अपनी अमूल्य राय साझा करने का बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय गुमनाम जी ।
रचना पर अपनी अमूल्य राय साझा करने का बहुत -बहुत शुक्रिया आदरणीया रक्षिता जी ।
वाह अच्छी कविता स्थितियों का सही चित्रण......
आदरणीय आरिफ जी नमस्कार,
आज के युग में चारों तरफ जो अशांति....का मंज़र है, आपने उसे अपनी कविता के माध्यम से बड़ी ही गहराई से बयां किया है.....बहुत ही बेहतरीन कविता, मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
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