मैं संग चल दी उनके,
मेरा मन यहीं रह गया...
उन्होंने दिखाये होंगे हजारों ख्वाब,
पर इन आँखों में रौशनी कहाँ थी !!
कितने ही गीत सुनाये होंगे उन्होंने,
पर इन कानों के पट तो बंद हो चुके थे !!
उनके सबालों का,
जबाब भी ना दे पायी थी मैं....
क्योंकी इन होठों पे, तुम्हारा ही नाम रखा था!!
कितना आक्रोश था उनके ह्रदय में,
जब उन्होंने,
मेरे केशों को पकड़कर खींचा था...
और मैं पत्थर सी हो गयी थी,
किसी भी आघात की पीड़ा ना हुई मुझे!!
ऐसी बेजान चीज को-
कौन...रखता अपने पास?
वो मुझे वहीं छोड़ गये,
जहाँ से उठा ले गये थे...
इन आँखों में अब रौशनी आ गयी है,
कानों के पट भी खुल चुके हैं....
जीवित हो गयीं हूँ मैं,
तुम्हारे स्पर्श स्पर्श से !!
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय तस्दीक़ जी नमस्कार
,रचना पर आपकी शिर्कत के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
मुह तरमा रक्षीता साहिबा, अच्छी रचना हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं |
आदरणीय विजय जी नमस्कार,
रचना पसंद के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।।
आपकी कविता अच्छी लगी।हार्दिक बधाई।
आदरणीय कबीर जी नमस्कार, आपकी शिर्कत के लिए बेहद शुक्रिया...., आपको कविता पसंद आयी ...लिखना सार्थक हुआ।
आपके द्वारा बताई त्रुटि को मैं शीघ्र ही सुधारने का प्रयास करूँगी, कृपया इसी तरह मार्गदर्शन करते रहें बहुत बहुत धन्यवाद !!
मोहतरमा रक्षिता सिंह जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
सातवीं पंक्ति में 'सबालों' को "सवालों" कर लें ।
आदरणीय नरेन्द्र जी एवं आदरणीया नीलम जी नमस्कार, आपकी उपस्थिति व रचना की सराहना के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ....
आदरणीय रक्षिता सिंह जी, नमस्कार। सुन्दर रचना की प्रस्तुति के ली बढ़ायी स्वीकार करें।
आदरणीय मोहित जी नमस्कार,
रचना पर आपकी उपस्थिति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
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