"इन दरख़्तों के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा; कोई यहां गया, कोई वहां गया !" कटे हुए पेड़ों के शेष ठूंठों और उनकी कराहती जड़ों की ओर निहारते हुए पड़ोसी पेड़ अपनी शाखाओं का रुख़ ज़मीं की ओर करते हुए एक फ़िल्मी नग़में की तर्ज़ पर शोक-गीत गाने लगे।
"ये शहादत खाली नहीं जायेगी! दिल्ली की खिल्ली उड़वा रहे हैं दुनिया में शेख़ चिल्ली!" पास के एक ऊंचे से पेड़ ने अपना अंतिम अट्टाहास करते हुए कहा।
"नये दरख़्त कितने भी कहीं भी लगवा लें, न तो उनके बीज और जड़ों की वह गुणवत्ता रहेगी, न उनकी क़ुदरती परवरिश और न ही इन शहीद विरासतों जैसा दीर्घ जीवन!" एक दूसरे वरिष्ठ वृक्ष ने अपना ज्ञान और अनुभव बघारते हुए कह डाला।
इन सब की बातें सुनकर एक घायल सा, गिरने ही वाला एक अन्य पेड़ बोला- "आपकी बात सही है, पर अंधानुकरण करने वालों को समझ में आये, तब न! इन बेचारों का तो कोई चर्चित या विवादित धार्मिक नाम भी नहीं है कि इनके नाम कोई सड़क या इमारत का नाम इनके नाम पर रख कर जनता का तुष्टिकरण किया जा सके!"
"अबे, जनता की मत सोच! अपने भविष्य की और अपने नवोदितों की सोच! जनता तो ऑक्सीजन के सिलेंडरों का भी जुगाड़ करवा लेगी! "
"ऐसा नहीं है भाई! ऑक्सीजन वैसे भी आसानी ने नहीं मिलती भाई! जनता भी तब जागेगी, जब बदलाव के नाम, ज़मीं और ज़र के लिए भी ऐसे 'सामूहिक नरसंहार' क़ुदरत करवायेगी या राजनीति!" पड़ोस के दरख़्त बारी-बारी से इंसानों पर अपनी 'ग़ैर-असरदार भड़ास' निकाल रहे थे।
"अपना भी कोई धर्म होता, तो हर सत्ता भी हमसे चिपकी रहती और हमसे चिपकने वाले अवसरवादी 'दरख़्त-सेवकों' की आवाज़ भी तुरंत ही सुनी जाती! शुक्र है कि हमारी जड़ें ज़मीन में गहराई तक हैं, लेकिन आसमां पर उड़ने वाले जड़ों को भी कहीं आदतन उखाड़ न फेंकें!" फिर से उस वरिष्ठ पेड़ ने अपने उद्गार ज़ाहिर करते हुए अपने आंसू रूपी पत्ते टपकाये।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
एक बार पुनः हार्दिक धन्यवाद आदरणीय राज़ नवादवी साहिब। आपकी रचना ने मेरी रचना के भावव मक़ासिद पर चार चांद लगाये हैं!
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब, आदाब. आपका ह्रदय से आभार, आपकी लघुकथा कुछ यूँ मार्मिक थी, कि इन पंक्तियों का श्रेय आपकी कथा को ही जाता है. सादर.
वाह, आपने मेरी रचना के शेष भाव भी मेरी मनपसंद बेहतरीन शैली में बाख़ूबी पूरे कर दिये। विशिष्ट शैली में इस शैली में मेरी हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब राज़ नवादवी साहिब।
वाह बहुत खूब आदरणीय शहज़ाद उसमानी साहब, आपकी मार्मिक लघु कथा पढ़कर निम्न पंक्तियाँ लिखने को प्रेरित हो गया और सोचा आपके साथ साझा करूँ:
२१२२ २१२२ २१२२
"कौन अब सुनता है पेड़ों की व्यथा को,
स्वार्थ से इंसान को फ़ुर्सत कहाँ है
सायबाँ जो थे वो काटे जा रहे हैं
इस शहादत की कोई हुरमत कहाँ है
बेज़ुबां, मासूम हैं बच्चों के जैसे
ख़ुद हिफाज़त की इन्हें ताक़त कहाँ है
जी रहे हैं मर के मेज़ों कुर्सियों में
ज़िंदा पेड़ों की कोई क़ीमत कहाँ है?
मर रहे पत्ते ये चर्चा कर रहे थे
ये ज़मीं दोज़ख सी है, जन्नत कहाँ है
जितनी वहशत है दिमागे आदमी में
नस्ले दीगर में भी वो वहशत कहाँ है
~राज़ नवादवी
सादर
हमेशा की तरह मेरी इस ब्लॉग पोस्ट पर भी समय देकर प्रोत्साहित करने के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब।
अपने विचारों से अवगत कराते हुए प्रोत्साहित करने के लिए हार्दिक आभार आदरणीय
नीलम उपाध्याय जो।
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
"अपना भी कोई धर्म होता, तो हर सत्ता भी हमसे चिपकी रहती और हमसे चिपकने वाले अवसरवादी 'दरख़्त-सेवकों' की आवाज़ भी तुरंत ही सुनी जाती! शुक्र है कि हमारी जड़ें ज़मीन में गहराई तक हैं, लेकिन आसमां पर उड़ने वाले जड़ों को भी कहीं आदतन उखाड़ न फेंकें!"
बहुत ही सही कहा । सुंदर लघुकथा के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय उसमानी जी ।
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