1212 1212 1212 1212
दिलों की आग बुझ गई, जिगर में अब धुआँ नहीं
कि तुम भी अब जवाँ नहीं, कि हम भी अब जवाँ नहीं
सितारे गुम हुए सभी, रुपहली कहकशाँ नहीं
ज़मीने दिल पे अब तेरी वफ़ा का आसमाँ नहीं
सफ़र भी ज़िंदगानी का हुआ कभी अयाँ नहीं
जहाँ पे रहगुज़र मिली वहाँ पे कारवाँ नहीं
वो मुझसे बोलता नहीं, वो मुझसे सरगिराँ नहीं
वफ़ा की आग क्या लगे, जहाँ उठे धुआँ नहीं
यूँ मह्वे आशिक़ी हुआ, ख़्याले जिस्मोजाँ नहीं
मेरी वफ़ा के सामने फ़लक़ भी बेकराँ नहीं
ये खल्क़ तो बहिश्त की नज़ीरे गुलसिताँ नहीं
कोई है घर पे मुंफ़रिद, किसी को आशियाँ नहीं
तफर्क़ा ए ख़्याल का है मुद्दआ कहाँ नहीं
इसीलिए तो आपसे हुए हैं बदगुमाँ नहीं
हवास की ख़िरद कभी रही है पासबाँ नहीं
कहो कि कब ज़मीर ने लिया है इम्तिहाँ नहीं
मैं रहगुज़र का हूँ मकीं मेरा कोई मकाँ नहीं
तलाशे ख़ुद के वास्ते फ़िरा कहाँ कहाँ नहीं
हुईं न ख़त्म हसरतें अगरचे अब जवाँ नहीं
है तीर अब भी हाथ में, मगर वो अब कमाँ नहीं
हमारे घर वो रौनके बहारे गुलसिताँ नहीं
तू जब से मेरे क़ुर्ब का हुआ है मेहमाँ नहीं
है सच कि मैं कभी गया किसी के आस्ताँ नहीं
ख़ुदी को फ़त्ह जो करे मिला वो हुक्मराँ नहीं
है कैफ़ियत मिजाज़ की ख़मोशियाँ हैं ओढ़ ली
मगर हैं नातवाँ नहीं, हुए हैं बेज़ुबाँ नहीं
सँभाल कर रखा करें मता ए हुस्न राज़ से
लगा दें आग वो कि यूँ ज़रा सा हो धुआँ नहीं
~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया, सादर.
अब ये मतला बिल्कुल दुरुस्त है ।
आ. भाई राज नवादवी जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय समर साहब, महत्वपूर्ण जानकारी और आपकी इस्लाह का ह्रदय से आभार. क्या शेर को इस तरह कर सकते हैं, कृपया अपना सुझाव दें.
सफ़र भी ज़िंदगानी का हुआ कभी अयाँ नहीं
जहाँ पे रहगुज़र मिली वहाँ पे कारवाँ नहीं
सादर
मैं आपको सिर्फ़ इतना बताना चाहता हूँ कि "सफ़र'' शब्द अरबी भाषा का है, और अरबी भाषा के बेश्तर शब्दों में इज़ाफ़त नहीं लगाई जाती,उनमें से एक शब्द "सफ़र" भी है ।
आदरणीय समर कबीर साहब. मैं ये कहना चाहता हूँ:
अगर दिलेगम (१२२ या २२) के बदले दिल-ए-गम (२१२) पढ़ने की छूट है, तो सफरे जिंदगानी की जगह सफ़र-ए-जिंदगानी (१२१२ १२१) पढ़ने की छूट क्यों नहीं? या इसमें क्या ग़लती है, कृपया स्पष्ट करें.
सादर
आप क्या कहना चाहते हैं फ़िराक़ के मिसरे लिख कर?
आदरणीय समर साहब, ज़रूर मिसरा बदल दूंगा. फिर भी अपनी जानकारी के लिए फ़िराक के दो शेर लिख रहा हूँ, बह्र है २१२२ १२१२ २२, क्रप्या प्रकाश डालें
मंसब-ए-दिल ख़ुशी लुटाना है
ग़म-ए-पिन्हाँ की पासबानी भी गम २/ ए 1/ पिन्हाँ २२/
शाद-कामों को ये नहीं तौफ़ीक़
दिल-ए-ग़म-गीं की शादमानी भी दिल २ / ए 1/ गमगीं २२
मेरा मिसरा है
सफ़र-ए-ज़िंदगानी भी..... सफ़र १२/ए ज़िन् १२ / द गा १२/ नी भी १२/
सादर
मिसाल शायद नहीं मिलेगी,मिसरा बदलें बहतर होगा ।
कृपया ये सुझाव दें की सुझाये गए बदलाव अभी तुरंत अमल में लाना है या फिर थोड़ा ठहर कर. सादर.
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