स्पेनिश कवि पाब्लो नेरुदा की कविता "You Start Dying Slowly" के हिन्दी अनुवाद से प्रेरित
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
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सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
आप चाहे तुच्छ हों या हों आप महान
आप चाहे पत्थर हों, पेड़ हों
पशु हों, आदमी हों, या कोई साहिबे जहान
आप चाहे बुलंद हों या जोशे नातवान
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
आप चाहे विनीत हों या कोई दहकता स्वाभिमान
आप चाहे लक्ष्य-भेदी तीर हों
या कोई मज़बूत हाथों से थामी गयी कमान
वक़्त के हाथों तवाज़ुन बनता बिगड़ता रहता है
नहीं रहती हमेशा मरकज़ पे टिकी मीज़ान
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
आप चाहे ज़ाहिद हों या हों
अपनी आदतों के गुलाम
आप चाहे खासुल ख़ास हों ज़माने के
या हों कोई मंज़रे आम
आपको भी मरना ही पड़ता है
कुछ नहीं अलग किसी का परिणाम
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
आप चाहे दिन में बदलें कपड़े हज़ार
या करें रंगों का चमकता कारोबार
आप चाहे करें अपनों से प्यार
या किसी अजनबी का सत्कार
समय निस्पृह है, किसी अघोर संन्यासी सा
प्रकृति का हर राग अंततः है वीतरागी सा
नहीं इसका कोई अलग आकार
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
आप चाहे क़ाबू में कर लें अपने आवेगों को
या फिर बह जाने दें प्रेम के समंदर में
अपनी मचलती भावनाओं को
आप चाहे हो लें दुखी दूसरों के दुःख से
या बने रहें खुद में सिमटे, म्लान, विमुख से
वक़्त का दरिया तो एक दिन समंदर में गिरेगा
रुकना है समय पे आपकी धडकनों को
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
हम क्या बदले ज़िन्दगी के मायनों को
कितना सच बनायें पानी पे उकेरे सपनों को
कितना सुलझायें दिन रात की उलझनों को
ज़िंदगी हमें बदलती रहती है हर पल
क्या आपने कभी सुना अपने ह्रदय के
क्लांत होते स्पंदनों को?
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
तुरपाई से सिले जिस्म के कपड़ों को
खुलना और बिखरना पड़ता है
क्योंकि इस भौतिक जीवन से परे
जहाँ नहीं हैं इस धरा के सांझ सवेरे
हमें प्रेम के धवल दिव्याकाशों में
दिक् और काल के अवकाशों में
आत्म के चिरातन प्रासादों में
इस जीवन के सतरंगी सपनों से
जागना पड़ता है !!
~ राज़ नवादवी
साहिबे जहान- कोई बड़ा व्यक्ति, ऋषि, संत;
नातवान- कमज़ोर
तवाज़ुन- संतुलन
मरकज़- केंद्र
मीजान- तराजू
ज़ाहिद- योगी, संयासी
खासुल ख़ास – कोई अपना ख़ास
मंज़र- दृश्य, नज़ारा
क्लांत- थका
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय अफरोज साहब, आपकी प्रेमपूर्ण प्रतिक्रियाओं के लिए ह्रदय से आभार! सादर
आदरणीय कल्पना भट्ट जी, आपकी सारगर्भित प्रतिक्रया के लिए पुनः हार्दिक आभार. सच कहा आपने, जन्म और मृत्यु किसी के हाथ नहीं और हम सबों के जीवन की यही सबसे बड़ी त्रासदी भी है. मानव जीवन इन्हीं सरहदों की जीतने के लिए उद्दिष्ट है, मगर हम सब अन्येतर क्रिया कलापों में अपनी उर्जाएँ प्रतिपल क्षय कर रहें हैं.
वो सुबह कभी तो आयेगी जब रात नहीं फिर आयेगी,
अपनी ही कृत इस दुनिया की कोई साँझ नहीं भरमायेगी !!
सादर
मरना पड़ता है यह भी अटल सत्य है और मरना ही है यह भी अटल सत्य है जन्म और मृत्यु कभी किसीके हाथ में नहीं रहा है , आपकी इस कविता को पढ़ते वक्त ज़िन्दगी में आती हुई धुप छाँव दिखाई दी है , कविता के अनुवाद को पढ़कर उसमे आपने अपनी तरफ से आपके मनोभाव को प्रेषित किया है जो काबिले तरीफ है , साधुवाद | बहुत सही चित्रण किया है आपने इस प्रयास के लिए पुनः बधाई |
आदरणीया कल्पना भट्ट जी, आपकी प्रतिक्रियाओं का ह्रदय से आभार. दरअस्ल ओबीओ भोपाल Whatassp पर कल प्रातः किसी ने पाब्लो नेरुदा की कविता का हिन्दी अनुवाद पोस्ट किया था. उसे पढ़कर काफी अच्छा लगा और उसके बाद मेरे मन में जो प्रतिक्रिया हुई उसी से मेरी लिखी कविता का जन्म हुआ. अनुवाद की ये पंक्ति"आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप....." को पढ़ते ही मेरे मन ने कहा: "सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है" और इस तरह मेरी कविता की शरुआत हुई. सादर
आदरणीय जो आपने लिखा है अपने आपमें बहुत ही गूढ़ लिखा है और सच भी है | यह कविता मैंने पढ़ी नहीं हैं पर पढूंगी इसको | हार्दिक बधाई आपको इस सुंदर और सार्थक प्रयास के लिए |
आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ साहब, मेरी रचना पर आपकी सुन्दर प्रतिक्रया का ह्रदय से आभार. सादर
आदरणीय समर कबर साहब, आदाब. रचना पर आपकी प्रतिक्रियाओं के लिए ह्रदय से आभार. दरअस्ल ये पाब्लों नेरुदा की कविता का अनुवाद नहीं है. यह उनकी कविता के अनुवाद को पढ़कर उसका एक प्रत्युत्तर है. नेरुदा ने अपनी कविता में रोज़मर्रा ज़िंदगी की बात की है और बताया है कि हम किस तरह जीवन में प्रतिदिन किये जाने वाले छोटे छोटे कामों से मिल सकने वाली खुशियों से स्वयं को वंचित रखकर मरने लगते हैं. उनकी कविता सांसारिक ज़िंदगी के बारे में है, मेरी कविता रूहानी मौत के बारे में. मैंने यह कहा है कि मृत्यु सबकी आनी है और हमारे सच्चा जीवन का तार कहीं और से जुड़ा है. हमें इस जीवन में मरकर अपने शाश्वत जीवन में जागना है. सादर
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