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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५७

ग़ज़ल २२१ २१२१ १२२१ २१२ 
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लूटा जो तूने है मेरा, अरमान ही तो है
उजड़ा नहीं है घर मेरा, वीरान ही तो है

वादा खिलाफ़ी शोखी ए खूबाँ की है अदा
आएगा कल वो क़स्द ये इम्कान ही तो है

सीखेगा दिल के क़ायदे अपने हिसाब से
वो शोख़ संगदिल ज़रा नादान ही तो है

नज़रे करम कि हुब्ब के कुछ वलवले उठे
मेरे जिगर में आपकी ये तान ही तो है

आकर जो मेरे होंठ को छूती है तेरी साँस
होशो हवास के लिए तूफ़ान ही तो है

तुझसे किया गुरेज़ ये इलज़ाम मुझपे क्यों
ख़त जो लिखा है, प्यार का ऐलान ही तो है

कितना लडूँ ज़मीर से, कितना जहान से
दुनिया बदलते वक़्त की मीज़ान ही तो है

मरने की बात क्यों करें, चाहत दिखाने को
मरना किसी भी हाल में आसान ही तो है

वादे पे अपनी जान भी दे दें तो क्या ग़लत
इंसाँ में और है भी क्या, ईमान ही तो है

अच्छा है, ख़ुद शनास है, दिल भी है उसके पास
कुछ भी कहो पर आदमी इंसान ही तो है

रहता कहाँ हूँ, नाम क्या, करता हूँ काम क्या
सब कुछ पता है पर ख़ुदी अंजान ही तो है

आ जा तुझे नवाज़ दूँ जानो जिगर से मैं
ऐवाने दिल में तू मेरा महमान ही तो है

डरता है मेरे दिल में क्यों रखने से अपने पाँव
बस्ती ये आदमी की है, सुनसान ही तो है

घबरा न 'राज़' प्यार की करके तू पेशकश
उसने तो 'ना' किया नहीं, हैरान ही तो है

~ राज़ नवादवी

खूबाँ- ख़ूब का बहुवचन, सुन्दर स्त्रियाँ, माशूकाएं
क़स्द- संकल्प, इरादा, कामना
इमकान- संभावना
हुब्ब- प्रेम, स्नेह, मुहब्बत
वलवले- उत्साफ, उमंग, आवेग, जोश
तान- तीर मारना, कटाक्ष
गुरेज़-उपेक्षा
ज़मीर- अंतःकरण
मीज़ान- तराजू
ख़ुद शनास- स्वयं को पहचानने वाला
ऐवान- महल, शाही महल

"मौलिक एवं अप्रकाशित" 

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Comment by राज़ नवादवी on October 11, 2017 at 9:17pm

आदरणीय निलेश जी, आपकी और समर साहब की बातों पे गौर कर रहा था तो ये ख्याल आया, सोचा शेयर करूँ -

"मानी जिन्होंने बात वो बनते चले गए 

बाकी तो याँ पे आये थे अच्छे, चले गए"

हाहाहा, सादर  

Comment by राज़ नवादवी on October 11, 2017 at 9:11pm

आदरणीय निलेश जी, धन्यवाद. गुरेज़ के लिए आपका सुझाव अच्छा है. हाहाहा, इस बार भी आप मतला बदलवा कर रहोगे. बहुत खूब, कुछ अच्छा ही निकलेगा. सादर! 

Comment by राज़ नवादवी on October 11, 2017 at 9:09pm

आदरणीय सुशील सरना जी आपका ह्रदय से आभार . सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 11, 2017 at 8:37pm

आ. राज़ साहब,
अच्छी ग़ज़ल हुई है ...
मतले के दोनों मिसरों में रब्त नदारद पाया ...  दोनों  जगह मेरा ११ पर आने से एक सी जुगत लगी है..देखिएगा 
तुझसे किया गुरेज़ ये इलज़ाम मुझपे क्यों ...या मैंने किया गुरेज़??? मिसरा अस्पष्ट है 
देखिएगा 
सादर 

Comment by राज़ नवादवी on October 11, 2017 at 8:01pm

आदरणीय समर साहब, बहुत खूब मिसरा आपने सुझाया है. धन्यवाद. आपकी बातों से सहमत हूँ मगर हम ये कहते हैं: 

"दिल्ली बार बार उजड़ी और बसी", न कि "दिल्ली बार बार वीरान हुई और बसी" क्योंकि दोनों शब्द मिलते जुलते होते हुए भी अलग अलग मानी रखते हैं, उजड़ने में एक भौतिक पक्ष भी है. सादर 

Comment by Sushil Sarna on October 11, 2017 at 7:51pm

खूबसूरत अहसासों की इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय। 

Comment by Samar kabeer on October 11, 2017 at 7:04pm
मतले के सानी मिसरे पर आपने क्या सोचकर कहा है,ये अहम नहीं,सवाल ये है कि पाठक क्या सोचता है ।
'क़स्द'वाले मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'आएगा वो ज़रूर ये इमकान ही तो है'
आपके विकल्प सुरक्षित हैं ।
Comment by राज़ नवादवी on October 11, 2017 at 6:50pm

 जनाब समीर साहा, आदाब. आपकी इस्लाह का लाख शुक्र. ये अर्ज़ है कि भरी महफ़िल में भी वीरानियाँ थीं, उजड़े दयार अच्छे हैं, जी घबराता नहीं. सजा हुआ है मेरा घर, उजड़ा नहीं, वीरान है, कोई आता नहीं ! तो मैंने इस तरह उजड़े और वीरान को लिया है. क़स्द का अर्थ जो लुगत में है: (१) संकल्प, निश्चय, इरादा; (२) इच्छा, कामना, ख्वाहिश. मैंने दूसरे वाले अर्थ में लफ्ज़ का इस्तमाल किया है. अगर फिर ही ग़लत है तो बताएं, कोई नया लफ्ज़ सुझाने की कृपा करें, या मिसरा, अन्यथा शेर हटाना होगा. सादर. 

Comment by Samar kabeer on October 11, 2017 at 6:00pm
'उजड़ा नहीं है घर मेरा वीरान ही तो है'-उजड़ना और वीरान होना एक ही तो है भाई ?
"आएगा कल वो,क़स्द ये इमकान ही तो है'
इस मिसरे में 'क़स्द'सही अर्थ नहीं दे रहा है ।
Comment by राज़ नवादवी on October 11, 2017 at 4:10pm

आदरणीया कल्पना भट्ट जी, ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रियाओं का ह्रदय से आभार. सादर 

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