ग़ज़ल- २२१ २१२१ १२२१ २१२
(फैज़ अहमद फैज़ की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल)
हारा नहीं हूँ, हौसला बस ख़ाम ही तो है
गिरना भी घुड़सवार का इक़दाम ही तो है
बोली लगाएँ, जो लुटा फिर से खरीद लें
हिम्मत अभी बिकी नहीं नीलाम ही तो है
साबित अभी हुए नहीं मुज़रिम किसी भी तौर
सर पर हमारे इश्क़ का इल्ज़ाम ही तो है
ये दिल किसी का है नहीं तो फिर हसीनों को
छुप छुप के यारो देखना भी काम ही तो है
उम्मीद क्या नयी करें बाज़ी ए इश्क़ से
डूबे हैं हम जो इस तरह इनआम ही तो है
आती है बात ऐ ख़ुदा सारी बहिश्त से
मेरी ये शायरी तेरा इलहाम ही तो है
ख़ारों का तुझको खौफ़ क्यों दिल के जहान में
गुल है तेरा बदन नहीं, गुलफ़ाम ही तो है
आयेगी शब भी वस्ल की थोड़ा ठहर तो लो
हिज्रे वफ़ा की शाम भी इक शाम ही तो है
ख़ाना ख़राब हो गये तो है बवाल क्या
सर पर ये नीला आसमाँ भी बाम ही तो है
पी जाऊँगा मैं मैकदा इसका न खौफ़ रख
पकड़ा है जिसको हाथ से इक जाम ही तो है
उसने जो छीनी नौकरी तो हैं बड़े मज़े
जाते नहीं हैं काम पे, आराम ही तो है
फिर से करेंगे हौसले पाने के यार को
हारा नहीं है दिल फ़क़त नाकाम ही तो है
माँ-बाप तिफ़्ल के लिए माबू’द क्यों न हों
परवरदिगार भी ख़ुदा का नाम ही तो है
पूछे से तूने नाम जो अपना बता दिया
इतनी तवज्जो भी तेरा इकराम ही तो है
मैं भी तवाफ़े इश्क़ में सय्यार हो गया
कारे वफ़ा भी गर्दिशे अय्याम ही तो है
ढूंढोगे गर जो प्यार से दिल भी मिलेगा ‘राज़’
जाँ से तो है गया नहीं गुमनाम ही तो है
~ राज़ नवादवी
इक़दाम- किसी काम को करने के इरादे से आगे बढ़ना, पेशकदमी, अग्रसरता; ख़ाम- अनुभवहीन, अपरिपक्व; इलहाम- दिव्य प्रेरणा; ख़ार- काँटा; बहिश्त- स्वर्ग; गुलफ़ाम- गुलाब के फूल के रंग वाला, बहुत सुन्दर; वस्ल- मिलन; परवरदिगार- सबको पालने वाला, इश्वर का नाम; तवज्जो- ध्यान, अटेंशन देना; इकराम- कृपाएं; तवाफ़- चक्कर लगाना; सय्यार- ग्रह; गर्दिशे अय्याम – रात-दिन का चक्र
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय बृजेश कुमार बब्रज साहब, आपका ह्रदय से आभार. सादर!
आदरणीय सुधिजनों, प्राप्त किये गए सुझावों के पश्चात ग़ज़ल में आवश्यक संशोधन कर दिए गए हैं. मतला का मिसरा-ए-सानी भी बदल दिया गया है.परिशुद्धियों को बोल्ड अक्षरों में दिखलाया गया है. परिवर्तित ग़ज़ल नीचे दी जा रही है. आपलोगों के अनुमोदन के पश्चात पोस्ट को एडिट कर दूंगा. सादर -
ग़ज़ल- 221 2121 1221 212
हारा नहीं हूँ, हौसला बस ख़ाम ही तो है
गिरना भी घुड़सवार का इक़दाम ही तो है
साबित अभी हुए नहीं मुज़रिम किसी भी तौर
सर पर हमारे इश्क़ का इल्ज़ाम ही तो है
ये दिल किसी का है नहीं तो फिर हसीनों को
छुप छुप के यारो देखना भी काम ही तो है
उम्मीद क्या नयी करें बाज़ी ए इश्क़ से
डूबे हैं हम जो इस तरह ईनाम ही तो है
आती है बात ऐ ख़ुदा सारी बहिश्त से
मेरी ये शायरी तेरा इलहाम ही तो है
ख़ारों का तुझको खौफ़ क्यों दिल के जहान में
गुल है तेरा बदन नहीं, गुलफ़ाम ही तो है
आयेगी शब भी वस्ल की थोड़ा ठहर तो लो
हिज्रे वफ़ा की शाम भी इक शाम ही तो है
ख़ाना ख़राब हो गये तो है बवाल क्या
सर पर ये नीला आसमाँ भी बाम ही तो है
पी जाऊँगा मैं मैकदा इसका न खौफ़ रख
पकड़ा है जिसको हाथ से इक जाम ही तो है
उसने जो छीनी नौकरी तो हैं बड़े मज़े
जाते नहीं हैं काम पे, आराम ही तो है
फिर से करेंगे हौसले पाने के यार को
हारा नहीं है दिल फ़क़त नाकाम ही तो है
माँ-बाप तिफ़्ल के लिए माबू’द क्यों न हों
परवरदिगार भी ख़ुदा का नाम ही तो है
पूछे से तूने नाम जो अपना बता दिया
इतनी तवज्जो भी तेरा इकराम ही तो है
मैं भी तवाफ़े इश्क़ में सय्यार हो गया
कारे वफ़ा भी गर्दिशे अय्याम ही तो है
ढूंढोगे गर जो प्यार से दिल भी मिलेगा ‘राज़’
जाँ से तो है गया नहीं गुमनाम ही तो है
(इक़दाम- किसी काम को करने के इरादे से आगे बढ़ना, पेशकदमी, अग्रसरता)
आदरणीय सलीम रज़ा साहब, बह्र की बाबत आपके सुझाव का ह्रदय से धन्यवाद. पोस्ट में आवश्यक परिवर्तन कर दूंगा. सादर.
आदरणीय नीलेश जी, ग़ज़ल में शिरकत के लिए, सराहना एवं बहुमूल्य सुझावों के लिए हार्दिक धन्यवाद. भाई सलीम रज़ा जी के कहे अनुसार जिसकी जनाब समर कबीर साहब ने भी तस्दीक की है, इस गज़ल की बह्र वो नहीं जिसे मैं समझा था. लिहाज़ा इसे अब उसी बह्र के हिसाब से ही देखना होगा.
नीलाम शब्द को लेकर आपकी कही बात में तथ्य है. मैंने भी इस पर विचार किया. नीलाम एक प्रकार
की सार्वजनिक बिक्री या उसका तरीका है. हिम्मत अभी बिकी नहीं नीलाम ही तो है, से यह अर्थ भी निकलता है कि अभी बिकी नहीं, नीलाम होने वाली है, जहाँ बोली लगाकर वापिस अपने मालिकाना हक को बरकरार रखा जा सकता है क्योंकि नीलाम ही तो है से यह भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं की हिम्मत नीलाम हो चुकी है. खैर, बेहतर होगा मतले को नए सिरे से लिखने की कोशिश की जाए.
बताये गए शुतुरगुर्बा दोष के लिए धन्यवाद. अंजाम की जगह ईनाम लिखने का सुझाव भी सुन्दर है. धन्यवाद. सादर
आ राज़ साहिब,
अच्छी ग़ज़ल है ..
पहले रुक्न में २१२२ को ११२२ करने की छूट होती है ..दूसरे में नहीं होती शायद (देखिएगा)
.
हिम्मत अभी बिकी नहीं नीलाम ही तो है ...ये मिसरा समझ नहीं आया ..नीलामी में भी बिक्री ही होती है...
.
साबित अभी हुआ नहीं मुज़रिम किसी भी तौर
सर पर हमारे इश्क़ का इल्ज़ाम ही तो है.... उला में हुए कर लें वरना शतुर्गुर्बा हो रहा है
.
डूबे हैं हम जो इस तरह ईनाम ही तो है ...शायद आपको सुझाव पसंद आये ..
.
सादर
.
.
जनाब समीर साहब, आदाब! मैंने चेक किया. फैज़ साहब की ग़ज़ल की बह्र वही है जो सलीम रज़ा साहब ने कही है. मेरी ग़ज़ल की बह्र वही है जो मैंने लिखी है. मेरी ग़ज़ल की ज़मीन (काफ़िया और रदीफ़) तो फैज़ साहब की है मगर बह्र अलग है. सादर
आदरणीय समीर साहब, तीसरा शेर तो आपने जैसे बदलने बताया है, वो सही है, इसलिए मैंने कुछ लिखा नहीं, उसे आपके कहे मुताबिक बदलना है. जाम वाले शेर में या तो आपने जो बताया है वो या फिर इसे यूँ कर सकते हैं: "पकड़ा हूँ जिसको हाथ में इक जाम ही तो है". गुलफाम वाला शेर हटा देता हूँ. अरकान के बारे में जो आप कहें, सलीम साहब ने जो बताया है मुझे उसका बिलकुल भी इल्म नहीं है. फिर भी कोशिश करूंगा. सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online