2122 2122 2122 212
जो नहीं मँझधार में थे, साहिलों के पास थे
मुद्दतों से पाँव उनके दलदलों के पास थे
जीत के सारे हुनर तो हौसलों के पास थे
पैतरे ही थे फ़क़त जो बुज़दिलों के पास थे
मैं कहाँ चूका बता इस ज़िंदगी की दौड़ में
लोग जो दौड़े नहीं वो मंज़िलों के पास थे
बर्क़ ने कुछ न बिगाड़ा जो थे ज़ेरे आसमाँ
वो परिंदे मर गये जो घोंसलों के पास थे ।
आपने देखा नहीं मुझको सरापा क्या करूँ
नक़्श मेरी कोशिशों के आबलों के पास थे
आके जाना मर्क़ज़े तख़लीक़ की आगोश में
ख़ल्क़ के सब दायरे तो फ़ासलों के पास थे
होशवालों में कहाँ बेदारियों का ज़िक्र था
जज़्ब के हालात सारे ग़ाफ़िलों के पास थे
चाहता हूँ राज़ लिक्खूँ और गाऊँ बज़्म में
जो तराने जन्नतों की बुलबुलों के पास थे
~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आपका ह्रदय से आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी. सादर
आ. भाई राज नवादवी जी, यह गजल भी उम्दा हुयी है । हार्दिक बधाई ।
अब ठीक है ।
आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ साहब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत से हम हमेशा की तरह मुफ़ीद हुए. आपकी हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया. हाहाहा, कलाम का सिलसिला बस यूँ ही बना रहे, मेरी आमद पे दोस्तों की दुआ रहे. सादर
आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी, आपकी ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का ह्रदय से आभार. सादर.
आदरणीय समर कबीर साहब, आपकी दाद एवं हौसला अफज़ाई का ह्रदय से आभार. सुझाए गए बदलाव पे अमल करूँगा. 'जज़्ब के हालात तो सब ग़ाफ़िलों के पास थे' को बदल कर 'जज़्ब के हालात सारे ग़ाफ़िलों के पास थे' ऐसा कर दूंगा.
सादर
आदरणीय राज़ नवादवी जी आदाब,
बहुत ही गांभीर्य भाव लिए बेहतरीन "एक अंजान शायर का क़लाम ।" पता नहीं और कितने कलाम होंगे । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का संज्ञान लें ।
एक और बेहतरीन ग़ज़ल...बहुत ही शानदार आदरणीय
जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ये ग़ज़ल भी उम्दा हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
हुस्न-ए-मतला में 'बुझदिलों' को "बुज़दिलों" कर लें ।
'मैं कहाँ पे चुक गया इस ज़िन्दगी की दौड़ में'
इस मिसरे में 'चुक' ग़लत शब्द है,सहीह शब्द है "चूक'" इस मिसरे को यों कर सकते हैं:-
'मैं कहाँ चूका बता इस ज़िन्दगी की दौड़ में'
'आपने देखा नहीं मुझको सरापा क्या करें'
इस मिसरे के अंत में 'करें' को "करूँ" कर लें ।
सातवें शैर के सानी मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखें 'हालात तो' ।
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