अस्तित्व की शाखाओं पर बैठे
अनगिन घाव
जो वास्तव में भरे नहीं
समय को बहकाते रहे
पपड़ी के पीछे थे हरे
आए-गए रिसते रहे
कोई बात, कोई गीत, कोई मीत
या केवल नाम किसी का
उन्हें छिल देता है, या
यूँ ही मनाने चला आता है..
मैं तो कभी रूठा नहीं था
जीने से
बस, आस जीने की टूटी थी,
चेहरे पर ठहरी उदासी गहरी
हर क्षण मातम हो
गुज़रे पल का जैसे
साँसें भी आईं रुकी-रुकी
छाँटती भीतरी कमरों में बातें
जो रीत गईं, पर बीतती नहीं
जाती साँसों में दबी-दबी
रुँध गई मुझको रंध्र-रध्र में ऐसे
सोय घाव, पपड़ी के पीछे जागे
कुछ रो दिए, कुछ रिस दिए
घाव वही जो संवलित था भीतर
और था समझने में कठिन
जाती साँसों को शनै-शनै
था घोट रहा
ऐसी अपरिहार्य ऐंठन में
अपरिमित घाव समय के
कभी भरते भी कैसे ?
लाख चाह कर भी कोई
स्वयं को समेट कर, बहका कर
घाव समय के भूल सकता है कैसे ?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय नरेन्द्रसिंह जी
जनाब नरेन्द्र सिंह चौहान साहिब आदाब,पहले भी आपसे निवेदन किया था,आज फिर से निवेदन करता हूँ कि इतनी छोटी(तीन शब्दों की)टिप्पणी ओबीओ मंच की परिपाटी नहीं है,ये सीखने सिखाने का मंच है, कृपया मंच की गरिमा का कुछ तो ख़याल करें ।
अशआर आपको पसंद आये लिखना सार्थक हुआ,बहुत बहुत शुक्रिया प्रिय भाई विजय निकोर जी ।
वाह समर भाई साहब , वाह ! एक से बढ़ कर एक !
//चाह कर भी निकल नहीं सकता
क़ैद ऐसा मैं तेरे दाव में हूँ//.............. कितनी सच्चाई कह दी आपने इन शब्दों में ! वाह।
आदरणीय तस्दीक अहमद साहब, सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार
आपसे मिली भावपूर्ण सराहना के लिए आभारी हूँ , आदरणीय सुशील जी
/हो सके तो पूरी गज़ल साझी करें, भाई समर जी।//
आपके आदेशानुसार चन्द अशआर पेश हैं :-
इसलिये इतने रख रखाव में हूँ
उम्र के आख़री पड़ाव में हूँ
तू मुझे भूल ही नहीं सकता
मैं तेरे दिल के एक घाव में हूँ
मेरा अंजाम मुझ पे रोशन है
जानता हूँ कि फूटी नाव में हूँ
रात बिस्तर पे यूँ लगा मुझको
जैसे तपते हुए अलाव में हूँ
चाह कर भी निकल नहीं सकता
क़ैद ऐसा मैं तेरे दाव में हूँ
"समर कबीर"
जनाब विजय निकोर साहिब , अच्छी रचना हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
वाह आदरणीय विजय निकोर जी वाह .. ऐसी श्रेष्ठ,गहन भावों की प्रस्तुति , मौन में वाचाल होने का अनुभव आपकी कलम से ही सम्भव है सर। इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई सर।
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