छटपटाहट
समझ नहीं पाता हूँ
उदासी से भरी गुमसुम निस्तब्धता
अनदीखे अन्धेरे में वेदना का
चारों ओर सूक्षम समतल प्रवाह
पास हो तुम, पर पास होकर भी
इतनी अलग-सी, व दूर-दूर
यह ठोस अन्धकारमय एकांत
ऐसे में तुम्हारी असीम अन्यमनस्कता
गले में पत्थर-सी अटक जाती है
मिलते हैं, पर है यह विचित्र अनुभव
अब कोई बात तक नहीं होती
मुझसे ... न तुमसे
कभी लगता है बस
सुबक रही हैं, सरक रही हैं
हमारी परछाइयाँ एक साथ
शब्द हमारे ... बर्फ़ के टुकड़ों-से
उफ़्फ़ ! यह अपरिसीम दूरियाँ
यह बेचैन करती निस्तब्धता
रक्तिम घावों से उपजी अन्यमनस्कता
आखिर यह शीशा तो नहीं हैं कोई
जो एक हथोड़ा मार तोड़ दूँ इनको
इन स्थितियों के बीच जी-जी कर
अब सुन्न-सा
दो पाटों के बीच मानो पिस कर
अन्दर-बाहर चूर, आशंकाहत इतना
कि कल तो किसी की चिता पर भी
मेरे आँसू न बहे
क्या करूँ ! !
क्या इतना सूख गया हूँ मैं
खिसक गई है मुझसे दूर मानो
आक्रांत आत्मा भी अब
बिना ठाँव के अवसन्न मन के
निचले तल में दुगुना सदमा
टूट कर गिरे हुए तारे-सा
कोई दर्द भरा सपना
गहन अनुरोध करती-सी
भीतर की अनदीखी मजबूरियाँ
ऐसा क्यूँ हुआ !
छटपटाहट भयानक है
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय विजय जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय तस्दीक जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया नीलम जी
भाई समर जी, आपका यहाँ आना और पर्तिक्रिया देना मेरा मनोबल बढ़ाता है। आपका हार्दिक आभार, भाई समर जी।
आपका हार्दिक आभार, आदरणीय नरेन्द्रसिंह जी
आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहित जी।
आदरणीय विजय निकोर जी आदाब,
गंभीर , प्रभावशाली और सशक्त रचना । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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