आप महफिल में आये बैठे हैं
फिर भी नजरें झुकाये बैठे हैं
मसअला ये कि मेरी बात से वो
अब तलक़ खार खाये बैठे हैं
मुझको तो याद भी नहीं और वो
बात दिल से लगाए बैठे हैं
हम तो करते नहीं कभी पर्दा
वो ही चिलमन गिराए बैठे हैं
हमने हर चीज याद रक्खी है
जाने वो क्यूँ भुलाए बैठे हैं
हर तरफ दौर है ठहाकों का
और वो मुंह फुलाए बैठे हैं
बात दर अस्ल थी बहुत छोटी
वो बड़ी सी बनाए बैठे हैं !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आ बसंत कुमार शर्मा जी।
वाह क्या कहने शानदार गजल, आदरणीय समर कबीर जी की इस्लाह लाजबाब, आनंद आ गया आदरणीय
मेरे कहे को मान देने के लिए धन्यवाद ।
बहुत बहुत आभार आ मुहतरम समर कबीर साहब इस तरह से मेरी त्रुटियों को इंगित करने और सुधार करने के लिए. अभी सुधार कर देता हूँ, पुनः आभार
जनाब विनय कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'आज महफिल में आये बैठे हैं'
इस मिसरे में 'आज' की जगह "आप" करना उचित होगा ।
'एक मसले में मेरी बातों से'
इस मिसरे में सहीह शब्द है "मसअला" इसलिये इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'मसअला ये कि मेरी बात से वो'
मुझे तो याद नहीं वो अब तक'
इस मिसरे को यूँ करना उचित होगा :-
'मुझको तो याद भी नहीं और वो'
'वो बिना मुस्कुराए बैठे हैं'
इस मिसरे को यूँ करना उचित होगा:-
'और वो मुंह फुलाए बैठे हैं'
'दरअसल बात बड़ी छोटी थी'
इस मिसरे में सही शब्द है "दर अस्ल',इसलिये मिसरा यूँ कर लें:-
'बात दर अस्ल थी बहुत छोटी'
बाक़ी शुभ शुभ ।
हाएदिक बधाई आदरणीय विनय जी।बेहतरीन गज़ल।
एक मसले में मेरी बातों से
अब तलक़ खार खाये बैठे हैं
मुझे तो याद नहीं वो अब तक
बात दिल से लगाए बैठे हैं
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