हर तरफ बस दिख रहा इंसान है
हाँ, मगर अपनों से वो अंजान है
थे कभी रिश्ते भी नाते भी मगर
आजतो यह सिर्फ इक सामान है
जिसको कहते थे कभी काबिल सभी
सबकी नज़रों में वो अब नादान है
जिसको सौंपी थी हिफाज़त बाग़ की
बिक रहा उसका ही अब ईमान है
हर तरफ बैठे शिकारी घात में
चंद लम्हों का वो अब मेहमान है
था कभी गुलज़ार जो शाम-ओ-सहर
अब वही दिखने लगा शमशान है
जिसने देखे अम्न के सपने कभी
अब उसी का टूटता अरमान है
जिसपे थे दंगों के छींटे कल विनय
अब वही तो क़ौम का भगवान है !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विनय जी , ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें
जनाब विनय कुमार साहिब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है , मुहतरम समर साहिब के मशवरे से ग़ज़ल में निखार आ गया है , मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
बहुत बहुत आभार आ नीलम उपाध्याय जी
आदरणीय विनय कुमार जी, अच्छी रचना की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ।
बहुत बहुत आभार आ संतोष खिरवाडकर जी
बहुत बहुत आभार आ मुहतरम समर कबीर साहब, आपके निर्देशानुसार मैंने परिवर्तन कर दिया है. इसी तरह मार्गदर्शन करते रहिये, आभार
आदरणीय विनय जी , ग़ज़ल का शानदार प्रयास!
जनाब विनय कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन ग़ज़ल अभी समय चाहती है,कई मिसरे बह्र में नहीं हैं ।
'मगर वह अपनों से ही अंजान है'
इस मिसरे को यूँ कर लें :-
'हाँ, मगर अपनों से वो अंजान है'
'कभी रिश्ते भी थे नाते थे, मगर'
इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'थे कभी रिश्ते भी नाते भी मगर'
'जिसे कहते थे कभी काबिल सभी
सबकी नज़रों में अभी नादान है'
इस शैर को यूँ कर लें '-
'जिसको कहते थे कभी क़ाबिल सभी
सबकी नज़रों में वो अब नादान है'
'जिसको सौंपी थी हिफाज़त चमन की
वही तो सबसे बड़ा बेइमान है'
इस शैर को यूँ कर लें :-
'जिसको सौंपी थी हिफ़ाज़त बाग़ की
बिक रहा उसका ही अब ईमान है'
'कभी था गुलज़ार जो शामों सुबह
वही अब तो दिख रहा शमसान है'
इस शैर को यूँ कर लें :-
'था कभी गुलज़ार जो शाम-ओ-सहर
अब वही दिखने लगा शमशान है'
'जिसने देखे अमन के सपने कभी
उसी का अब टूटता अरमान है'
इस शैर को यूँ कर लें :-
'जिसने देखे अम्न के सपने कभी
अब उसी का टूटता अरमान है'
'वही अब तो, कौम का भगवान है'
इस मिसरे को यूँ कर लें :-
'अब वही तो क़ौम का भगवान है'
बाक़ी शुभ शुभ ।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online