मेरा घर - लघुकथा –
"हद हो गयी, अभी तीन दिन पहले ही साफ किया था जाला। फिर बना लिया"।
कमला झाड़ू लेकर मकड़ी के जाले को जैसे ही साफ करने लगी।
मकड़ी गिड़गिड़ाते हुये बोली,"क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा। क्यों मेरा घर संसार उजाड़ रही हो"?
"अरे वाह, मेरे ही घर में बसेरा कर लिया और मुझे ही ज्ञान दे रही हो"।
"हर कोई किसी ना किसी पर आश्रित है। संसार की यही रीति है"।
"होगी, पर मुझे तो नहीं पसंद। और यह तुम्हारा घर संसार। क्या है इसमें? जीवन भर की क़ैद। उम्र भर छटपटाकर इसी में अंत"।
"ओहो, और तुम्हारा, कभी सोचा है अपने जीवन के बारे में? तुम तो मुझसे भी बुरी तरह उलझी हुई हो, इस अपने ही बनाये मकड़जाल में। जिसे तुम दिन रात मेरा मेरा करती हो, तुम भी तो इसी में एक दिन खत्म हो जाओगी"।
मकड़ी के मुँह से इतनी यथार्थ और भेद भरी बात सुनकर कमला के हाथ से झाड़ू छूट कर दूर जा गिरी। वह अपने आप को एक मामूली सी मकड़ी के सामने तुच्छ और असहाय महसूस कर रही थी।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय नीलम उपाध्याय जी।
आदरणीय तेजवीर सिंह जी, परिवार में स्त्री की स्थिति के यथार्थ को दर्शाती अच्छी लघुकथा हुयी है। प्रस्तुति के लिए बधाई।
हार्दिक आभार आदरणीय बबिता गुप्ता जी।
हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब जी।
स्त्री जीवन को आइना दिखाती मकड़ी,बेहतरीन लघु कथा,हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय सरजी।
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हाएदिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी।लघुकथा पर आपने जो विस्तृत टिप्पणी द्वारा विवेचना और व्याख्या की है उसने मेरा और मेरी लघुकथा का उत्साह वर्धन किया है।शुक्रिया।
एक अहम मानव पात्र लेते हुए मुख्य मानवेतर पात्र के जीवन से तुलनात्मक अवलोकन पेश कर यथार्थपूर्ण/कटाक्षपूर्ण मानव-जीवन.रहस्य उभारती बेहतरीन मानवेतर लघुकथा सृजन हेतु सादर हार्दिक बधाइयां और यूं हमें मार्गदर्शित करने हेतु हार्दिक आभार आदरणीय तेजवीर सिंह साहिब।
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