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न जाने मुहब्बत में क्या चाहते हैं ।
जरा सी वफ़ा पर वो दिल मांगते हैं ।।
जिन्हें कुछ खबर ही नहीं दर्द क्या है ।
वही ज़ख़्म मेरा बहुत देखते हैं ।।
अगर वास्ता ही नहीं आपसे है ।
मेरा हाले दिल आप क्यूँ पूछते हैं ।।
असर चाहतों का दिखा फिर है उनका ।
अदाओं में चिलमन से जब झांकते हैं ।।
जो ठुकरा दिए थे मेरी बन्दगी को ।
मेरे घर का वो भी पता ढूढते हैं ।।
जुदाई में हमको ये तोहफ़ा मिला है ।
के हम रात भर याद में जागते हैं ।।
मिली मंजिलें हैं उन्हीं को यहां पर ।
समर्पण लिए जो डगर खोजते हैं ।।
उन्हें फ़िक्र होगी तरक्की हुई गर ।
जो गड्ढे मेरी राह में खोदते हैं ।।
मुहब्बत पे जिनको भरोसा बहुत है ।
सितम ढा के अक्सर वही रूठते हैं ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
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Comment
आदरणीय नवीन मणि जी गजल के लिए बधाई स्वीकार करें आदरणीय समर साहब की इस्लाह से कवाफी का मुआमला स्पषट हो गया होगा
बहुत बहुत धन्यवाद सर । मैंने अते काफ़िया बनाने का प्रयास किया था । यहां अलिफ़ साइलेंट होकर जुड़ा हुआ है । हलाकि यह काफ़िया विवादित माना जाता है पर कुछ लोग इस पर सहमति भी देते हैं ।
आपके कमेंट से मेरा कन्फ्यूजन दूर हुआ हार्दिक आभार सर ।
ये मतला भी गलत है,आपका क़ाफ़िया 'ते' है तो हर्फ़-ए-रवी क्या है? मतला यूँ करें फिर आप समझ लेंगे कि क़वाफ़ी क्या होने चाहिए:-
'वहाँ हमने देखा जहाँ भी गये हैं
ख़ुदा के तो यारो हज़ारों पते हैं'
आ0 कबीर सर सादर नमन बिलकुल सहमत हूँ । जल्दबाजी में गलती हो गयी है । मतला चेंज करता हूँ ।
जहां भी गये हम वहां देखते हैं ।
खुदा के भी यारो हजारों पते हैं ।।
देखिये सर क्वाफी दुरुस्त हुआ या नहीं ।
आ0 कबीर सर सादर नमन बिलकुल सहमत हूँ । जल्दबाजी में गलती हो गयी है । मतला चेंज करता हूँ ।
जहां भी गये हम वहां देखते हैं ।
खुदा के भी यारो हजारों पते हैं ।।
देखिये सर क्वाफी दुरुस्त हुआ या नहीं ।
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी।बेहतरीन गज़ल।
जो ठुकरा दिए थे मेरी बन्दगी को ।
मेरे घर का वो भी पता ढूढते हैं ।।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,इस ग़ज़ल में क़वाफ़ी सहीह नहीं हैं,देखियेगा ।
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