पीड़ा के ताप से,
पिघल रही मन की हिमानी
दो आँखें हुई हैं यमुनोत्री गंगोत्री
कंठ क्षेत्र देव प्रयाग हुआ है
जहाँ अलकनंदा और भगीरथी
की धाराएं आकर मिल रहीं
और हृदय क्षेत्र-हरिद्वार को
भिंगों रहीं
आप इसे रोना कह सकते हैं
लेकिन मैं अपना दुःख बहा रहा हूँ
अपने बैलों के साथ मर चुके किसान के प्रति
अपना फ़र्ज़ निभा रहा हूँ
शायद इससे अधिक कुछ कर नहीं सकता?
ना!!!!
सच ये है कि इससे ज्यादा कुछ करना ही नहीं चाहता
ख़ैर,
देख रहा हूँ....
उसके टूटे चप्पल, तार से सिले हुए
महसूस कर रहा हूँ...
उसके पाँव छिले हुए
अपना धर्म और कर्म तोल रहा हूँ
मैं; पंकज आज एकदम सच बोल रहा हूँ
फूँक देना चाहता हूँ धर्म की किताबें
जला देना चाहता हूँ कानून की इबारतें
वह विधान जो आज भी पाँव के छाले ढो रहा
पंकज उसी लिखावट की कमज़ोरी पर रो रहा......
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीया नीलम जी बहुत बहुत आभार
आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा जी, बहुत ही बढ़िया हृदयस्पर्शी रचना की प्रस्तुति। बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय विजय सर बहुत बहुत आभार
आदरणीय आरिफ़ सर बहुत आभार
//देख रहा हूँ....
उसके टूटे चप्पल, तार से सिले हुए
महसूस कर रहा हूँ...
उसके पाँव छिले हुए
अपना धर्म और कर्म तोल रहा हूँ//
बहुत ही अच्छा क्ड़वा सच है आपकी रचना में ... मन को छू गई। हार्दिक बधाई।
आदरणीय पंकज मिश्रा जी आदाब,
नए-नए और प्रतीकों के साथ बेहतरीन अभिव्यक्ति । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
ऐडिट कर दीजिए ।
आदरणीय बाऊजी बहुत दिन बाद आना हो पाया, इसी वजह से गल्ती हो गई...
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,बहुत उम्दा और मार्मिक कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
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