कुछ दिन से देखता हूँ बहुत बेकरार हो।।
कह दूँ मैं दिल की बात अगर ऐतबार हो ।।
परवाने की ख़ता थी मुहब्बत चिराग से ।
करिए न ऐसा इश्क़ जहां जां निसार हो ।।
रिश्तों की वो इमारतें ढहती जरूर हैं ।
बुनियाद में ही गर कहीं आई दरार हो ।।
कीमत खुली हवा की जरा उनसे पूँछिये ।
जिनको अभी तलक न मयस्सर बहार हो ।।
नजरें गड़ाए बैठे हैं कुछ भेड़िये यहां ।
मुमकिन है आज अम्न का फिर से शिकार हो ।।
कुर्बानियां वो मांगते मजहब के नाम पर ।
इंशानियत न मुल्क से अब तो फरार हो ।।
तुझको बता दिया तो ज़रूरी नहीं है ये ।
मेरे गमों के दौर का अब इश्तिहार हो ।।
रखिये जरा ख़याल भी अपने वजूद का ।
जब भी जूनून आपके सर पर सवार हो ।।
बादल बरस के चल दिए अब देखिये हुजूऱ।
शायद गुलों के हुस्न में आया निखार हो ।।
गुज़री तमाम उम्र यहां रौशनी बगैर ।
अब तीरगी से जंग कोई आर पार हो ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
रखिये जरा ख़याल भी अपने वजूद का ।
जब भी जूनून आपके सर पर सवार हो ।।
बहुत खूबसूरत गजल हुयी है, आ. भाई नवीन जी। हार्दिक बधाई
आदरणीय नवीन मणि जी नमस्कार बहुत अच्छी गजल आपने कही इसके लिए दिली मुबारकबाद कुबूल करिए छठे शेर में इंशानियत को इंसानियत कर लीजिएगा आठवां शेर बहुत ही अच्छा लगा उसके लिए अलग से मुबारकबाद कुबूल करें
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