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अब तीरगी से जंग कोई आर पार हो

221 2121 1221 212

कुछ दिन से देखता हूँ बहुत बेकरार हो।।
कह दूँ मैं दिल की बात अगर ऐतबार हो ।।

परवाने  की ख़ता थी  मुहब्बत चिराग  से ।
करिए न ऐसा इश्क़ जहां जां निसार हो ।।

रिश्तों की वो इमारतें ढहती जरूर हैं ।
बुनियाद में ही गर कहीं आई दरार हो ।।

कीमत खुली हवा की जरा उनसे पूँछिये ।
जिनको अभी तलक मयस्सर बहार हो ।।

नजरें  गड़ाए  बैठे  हैं  कुछ  भेड़िये यहां ।
मुमकिन है आज अम्न का फिर से शिकार हो ।।

कुर्बानियां वो मांगते मजहब के नाम पर ।
इंशानियत न मुल्क से अब तो फरार हो ।।

तुझको बता दिया तो ज़रूरी नहीं है ये ।
मेरे गमों के दौर का अब इश्तिहार हो ।।

रखिये जरा ख़याल भी अपने वजूद का ।
जब भी जूनून आपके सर पर सवार हो ।।

बादल बरस के चल दिए अब देखिये हुजूऱ।
शायद गुलों के हुस्न में आया निखार हो ।।

गुज़री तमाम  उम्र  यहां रौशनी बगैर ।
अब तीरगी से जंग कोई आर पार हो ।।

           -- नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित














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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 29, 2018 at 7:29pm

रखिये जरा ख़याल भी अपने वजूद का ।
जब भी जूनून आपके सर पर सवार हो ।।

बहुत खूबसूरत गजल हुयी है, आ. भाई नवीन जी। हार्दिक बधाई

Comment by narendrasinh chauhan on August 29, 2018 at 6:56pm
बहोत खुब
Comment by Ravi Shukla on August 29, 2018 at 4:24pm

आदरणीय नवीन मणि जी नमस्कार बहुत अच्छी गजल आपने कही इसके लिए दिली मुबारकबाद कुबूल करिए छठे शेर में इंशानियत को इंसानियत कर लीजिएगा आठवां शेर बहुत ही अच्छा लगा उसके लिए अलग से मुबारकबाद कुबूल करें

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