परवरिश - लघुकथा –
आज फिर शुभम और सुधा में गर्मागर्म बहस हो रही थी। मुद्दा वही था कि बाबूजी के कारण बिट्टू उदंड और जिद्दी होता जा रहा है।
"सुधा, बिट्टू उनकी संगत में जिद्दी नहीं तार्किक और जिज्ञासु हो गया है। हम इस विषय में कितनी बार बात कर चुके हैं कि अस्सी साल की उम्र में मैं अपने पिता को अलग नहीं रख सकता।"
"तो मैं बिट्टू के साथ कहीं और चली जाती हूँ। इतना तो कमा ही लेती हूँ कि दोनों का गुजारा हो सके।"
"सुधा तुम्हें पता है, मेरी माँ की मृत्यु के समय मैं केवल पाँच साल का था।पिताजी चाहते तो दूसरी शादी कर लेते।लेकिन उन्होंने मेरी परवरिश को महत्व दिया।ऐसे व्यक्ति की परिवार के प्रति निष्ठा पर तुम कैसे शक़ कर सकती हो।पिता के ऐसे त्याग को मैं कैसे अनदेखा कर दूँ?"
"मैं भी मेरे बेटे का भविष्य चौपट होते नहीं देख सकती।"
"सुधा, यह तुम्हारा वहम है| अभी हम दोनों जॉब करते हैं।बिट्टू स्कूल से एक बजे आता है।उसे स्कूल से लाने, लेजाने और बाद में सारे दिन संभालने की जिम्मेवारी भी तो पिताजी ही निभाते हैं।"
"उसके लिये तो एक बाई है मेरी नज़र में।"
"सुधा, मुझे तो तरस आता है तुम्हारी सोच पर।अपने खून पर भरोसा नहीं है।बाहर की काम वाली बाई पर है।जो सारे दिन ए सी में पड़ी पड़ी टी व्ही देखा करेगी।"
"मुझे कुछ नहीं सुनना। आज फ़ैसला होकर रहेगा। नहीं तो मैं आज ही बिट्टू को लेकर माँ के पास चली जाऊँगी।"
गुस्से में भनभनाती हुई सुधा बेड रूम का द्वार खोल कर जैसे ही बाहर निकली। सुधा की आँखें फटी की फटी रह गयीं जब उसने बिट्टू और बाबूजी को बेडरूम के दरवाजे से चिपके देखा। उसका पारा अब तो सातवें आसमान पर था।
"शुभम, लो अपनी आँखों से देखलो अपने बाबूजी की करतूत। खुद तो चोरी छिपे हमारे बेडरूम में झाँकते ही हैं, साथ में बिट्टू को भी ले रखा है।"
शुभम बाहर आया तो उसे भी अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। वह प्रश्नवाचक नज़रों से पिताजी को घूर रहा था।
पिता की आँखों से उत्तर की जगह आँसू टपक रहे थे।
इस असमंजस की स्थिति को बिट्टू ने तोड़ा,"पापा, दादाजी यहाँ अपने आप नहीं आये। मैं उन्हें लाया था। मैं उन्हें दिखाना चाहता था कि उनकी उनके ही घर में कितनी इज्जत है।
"शुभम ने एक संतोष की साँस ली और फिर बिट्टू के सिर को सहला कर उसे जता दिया कि उसकी परवरिश सही हाथों में हो रही है।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय नीलम जी।
हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब जी।
हार्दिक आभार आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप जी।
संयुक्त परिवार का चलन तो अब रहा नहीं। रही सही कसर परिवारों में बुजुर्गो का मान-सम्मान भी काम होता जा रहा है। संकीर्ण सोच को उजागर करती सूंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय तेजवीर सिंह जी।
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आद0 तेजवीर सिंह जी सादर अभिवादन। आज के समय को और परिवारिक उलझनों तथा बुजुर्गों के दशा पर युवाओं के द्वंद को बहुत बढ़िया ढंग से आपने लघुकथा में उकेरा है। बहुत बहुत बधाई स्वीकार कीजिये
हार्दिक आभार आदरणीय babitagupta जी।
वर्तमान में अधिकांशतया परिवारों में बुजुर्गो को लेकर इतनी छोटी सोच को उजागर करती रचना ,बेहतरीन रचना बधाई आदरणीय तेजवीर सरजी।
हार्दिक आभार आदरणीय श्याम नारायण जी। प्रणाम।
आदरणीय प्रणाम , उम्दा लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें । | सादर
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