मापनी - २१२२ २१२२ २१२२ २१२
चुपके’ चुपके रात में यूँ आता’ जाता कौन है
रोज आकर ख्वाब में नींदें उड़ाता कौन है
था मुझे विश्वास जिस पर दे गया धोखा वही
एक आशा फिर नई दिल में जगाता कौन है
घाव मुझको ज़िन्दगी से कुछ मिले तो हैं, मगर
छेड़कर फिर दर्द इस दिल का बढाता कौन है
बाग में कारीगरी होती दिखी हमको नहीं
फिर वहाँ पर फूल कलियों को बनाता कौन है
जुल्फ की काली घटाएँ छा रहीं रुखसार पर
और उसमे चाँद सा चेहरा दिखाता कौन है
बंद हैं पलकें मगर यूँ खिड़कियों की ओट में
हौले-हौले प्यार से ये मुस्कुराता कौन है
लग रही सुनसान सी हमको गली ये आपकी
फिर हमें आवाज देकर यूँ बुलाता कौन है
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी शुभ प्रभातम , आपकी हौसलाफजाई का दिल से शुक्रिया
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
घाव मुझको ज़िन्दगी से कुछ मिले तो हैं, मगर
छेड़कर फिर दर्द इस दिल का बढाता कौन है
इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,देखियेगा ।
एक बात ये कि सात अशआर की ग़ज़ल में चार अशआर में "फिर" शब्द आया है,ये कोई दोष नहीं है,लेकिन एक ही तरकीब को बार बार दुहराने से ग़ज़ल का हुस्न बाक़ी नहीं रहता ।
आदरणीय बसंत कुमार जी प्रणाम , बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ....हार्दिक बधाई | सादर
आ. भाई बसंत जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय बसंत कुमार जी।बेहतरीन गज़ल।
लग रही सुनसान सी हमको गली ये आपकी
फिर हमें आवाज देकर यूँ बुलाता कौन है
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