2122 2122 2122 212
था कभी कितना नरम वह! हर कदर आखर हुआ
जब हवाओं ने छुआ तब पात वह जर्जर हुआ।1
सूख जाती है सियाही आजकल जल्दी यहाँ
ख्वाहिशों के फ़लसफों पे आदमी निर्झर हुआ।2
मिट्टियों की कौन करता है यहाँ पड़ताल भी
हर शज़र गमला सजा आकाश पर निर्भर हुआ।3
जो उड़ाता था वहाँ बेपर घटाओं को कभी
देखते ही देखते वह आजकल बेपर हुआ।4
वक्त की मदहोशियाँ क्या-क्या करा देतीं यहाँ
गर्द के बस ढ़ेर जैसा एक दिन अकबर हुआ।5
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है आदरणीय मनन जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
बहुत बहुत आभार आदरणीय लक्ष्मण भाई।
आ. भाई मनन जी, सुंदर गजल हुयी है हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
जनाब समर जी,शुक्रिया व नमन।आपकी सहमति से गजल मानपूर्ण हुई।
जनाब मनन जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल है, बधाई लें ।
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