'अनौपचारिक आकस्मिक शिखर-वार्ता' :
प्रतिभागी : लोह कलपुर्जे, मशीनें और औज़ार।
अनौपचारिक परिचर्चा जारी गोलमेज पर :
"एक समय था, जब लोग हमारा लोहा मानते थे!"
"हां, बिल्कुल सही! लोहे पर कुछ मुहावरे, कहावतें और लोकोक्तियां भी कहा करते थे बातचीत में!"
"कील, हंसिया, खुरपी, छैनी, हथौड़े से लेकर बड़ी-बड़ी मशीनों और उनके कलपुर्जों तक हमारी ही धूम थी! अपना लोहा मनवाते थे; दुश्मनों को लोहे के चने चबाने पड़ते थे!"
"चर्मकार, कारीगर, किसान, मज़दूर, इंजीनियर, शिक्षित-अशिक्षित-उच्च शिक्षित सभी के हाथों से हम उनके छोटे-बड़े काम अंजाम तक पहुंचाते थे; उत्पादन करवाते थे!"
"जनाब, पहले हम मालिक थे, मालिक! बाक़ी हमारी कठपुतलियां! लेकिन आज के डिजिटल ज़माने में हम कठपुतली बन कर रह गये हैं; ग़ुलाम हैं, ग़ुलाम! तकनीकों के, कम्प्यूटरों के, विदेशी विशेषज्ञों के, बस!"
"नहीं भैया, हमारे इतने बुरे हाल भी नहीं हैं! हमारी भारत-माता, उसके निर्धन लाल और उन लालों की नेक मांयें आज भी हमारा लोहा मानती हैं! हमसे ही उनके पेट पलते हैं! घुमंतु बनजारों को लोहे के औजार बनाते, बेचते देखते हो न!" उन सबकी नकारात्मक बातों में सकारात्मकता घोलते हुए एक लोह-औज़ार बड़े गर्व से बोल पड़ा - "हमारे देश में कितनी भी डिजीटल तरक़्क़ी हो जाये, जब तक हमारी माताओं की पारम्परिक सम्पदा और शिक्षा की माया है, आम जनमानस में हमारी अहमियत आज भी बदस्तूर बरकरार है और रहेगी!"
"हां, पिताओं की अब सुनता कौन है? उनके हुनर और उनके उसूल उन्हीं के साथ चले जाते हैं न! बहुत कम युवा ही पुराने ख़ानदानी रोज़गार को अपना पाते हैं!" एक जंग लगा औज़ार बोला।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदाब। मेरी इस रचना का अवलोकन करने और मेरा प्रोत्साहन करने हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीय समर कबीर साहिब, आदरणीय तेजवीर सिंह साहिब, आदरणीया कल्पना भट्ट साहिबा और सभी व्यूअर्स।
बढ़िया लघुकथा हुई है आदरणीय शहजादजी | हार्दिक बधाई आपको|
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी। बेहतरीन संदेश पूर्ण लघुकथा।
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