कौए अब अपने पितृ स्थान के लिए
स्कूल के बच्चों के हिस्से में आई
अनुदान राशि को हड़प ले गये ।
और अपनी श्रद्धा प्रकट करने के लिए
राजनीति को यूँ अपनाया
कि विधायक, सरपंच मजबूर हैं
सरकारी सहायता को पितृों तक भेजने के लिए ।
अन्य पक्षियों को छोड़कर
केवल कौओं की वोटो की गिनती
के मायने जियादा हैं ।
शेर भी लाचार हैं
वे अब शिकार नहीं करते
वे शिकार हो जाते हैं ।
शेरों को हमेशा
कौओं ने सरकश में नचवाया ।
कबूतरों ने आँखें बंद कर ली हैं
बंदर और तोते सबकी नकल करना भूल कर
अब केवल कौओं की नकल करते हैं ।
कौओं के पेड़ों पर बैठे बैठे
नीम के पेड़
सफेदों में तब्दील हो गये
जामुन और आम
अपने फलों का स्वाद
बचाने में नाकाम हैं ।
दूब घास की जगह
कांग्रेस घास जबरदस्ती
से उगने लगी है
वह बिना बीज बोए उगती है ।
फ़सलें किसानों पर हँसते हुए कहती हैं
कब तक जिओगे?
बैंकों पर कौओं का कब्जा है
अब मरने के लिये पानी और दवाओं की जरूरत है
जीने के लिए नहीं ।
मौलिक व अप्रकाशित रचना
Comment
लक्ष्मण धामी मुसाफिर साहब,
आपकी आवश्यक टिप्पणी के लिए आभार ।
कविता की यदि आप समीक्षा कर सकें तो बहुत आभार होगा ।
मैं अपनी कविता को देखना चाहता हूँ कि यह किन किन अर्थों में समझी जा रही है या सकती है ।
आ. भाई सूबे सिंह जी, बहुत खूब तंज कसा है । हार्दिक बधाई ।
समर कबीर साहब बहुत बहुत शुक्रिया
जनाब सूबे सिंह सुजान जी आदाब,उम्दा तंज़ करती उम्दा कविता,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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