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खुदकुशी बेहतर है ऐ दिल बेवफ़ा के साथ से
चाहो मत बढकर किसी को चाह की औकात से।
जिसकी ख़ातिर छोड़ दी दुनिया की सारी दौलतें
रख न पाया मन भी मेरा वो दो मीठी बात से ।
दे रहा है तुहमतें उल्टा मुझे ही बेवफ़ा
बेहया से क्या कहूँ मैं, क्या कहूँ इस जात से।
मैं समझता था मुहब्बत की सभी को हैं तलब
उसको तो मतलब है लेकिन और कोई बात से।
हैं मुसलसल शिद्दतें कुछ यूँ जुदाई की सनम
छूटने ही वाला है अब हाथ तेरे हाथ से।
मौलिक व अप्रकाशित ।
Comment
शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण जी
आ. भाई राहुल जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब राज़ नवाजना साहब
आदरणीय राहुल डांगी साहब, आदाब. सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे हार्दिक बधाई. सादर.
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब समर साहब
जनाब राहुल डांगी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' दे रहा है तोहमत उलटा मुझे ही बेवफ़ा '
इस मिसरे में 'तोहमत'ग़लत है,सहीह शब्द है "तुहमत" 22,इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'दे रहा है तुहमतें उल्टा मुझे ही बेवफ़ा'
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