2122 2122 2122 212
रोज के झगड़े, कलह से दिल अब उकता सा गया।
प्यार के बिन प्यार अपने आप घटता सा गया।
दफ़्न कर दी हर तमन्ना, हर दफ़ा,जब भी उठी
बारहा इस हादसे में रब्त पिसता सा गया।
रोज ही झगड़े किये, रोज ही तौब़ा किया
रफ़्ता रफ़्ता हमसे वो ऐसे बिछड़ता सा गया।
चाहकर भी कुछ न कर पाये अना के सामने
हाथ से दोनों ही के रिश्ता फिसलता सा गया।
छोडकर टेशन सनम को लब तो मुस्काते रहें
प्यार का मारा हमारा दिल तड़पता सा गया।
जाने किसकी बददुआ थी दरमियां हम दोनों के
जितना समझाया उसे उतना बिगडता सा गया।
खुदकुशी तो थी नहीं शामिल हमारे ख्वाबों में
मौत का पंजा ही जबरन हमको कसता सा गया।
मौलिक व अप्रकाशित ।
Comment
आदरणीय राहुल दांगी जी, आदाब. ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें. बाक़ी आदरणीय समर कबीर साहब ने अपनी बहुमूल्य प्रक्रिया दे दी है. सादर
आदरणीय राहुल डांगी जी सुंदर रचना के लिए बधाई
जनाब राहुल डांगी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'रोज ही झगड़े किये, रोज ही तौब़ा किया'
पहली बात,ये मिसरा बह्र में नहीं है,दूसरी बात ये कि "तौबा" शब्द स्त्रीलिंग है ।
' छोडकर टेशन सनम को लब तो मुस्काते रहें'
इस मिसरे में 'रहें' को "रहे" कर लें ।
वक्त की सच्चाई को उजागर करती सुंदर रचना बधाई स्वीकारे
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