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उड़ रहे थे पैरों से ग़ुबार, देखते रहे
वो न लौटे जबकि हम हज़ार देखते रहे //१
ताब उसकी, बू भी उसकी, रंग भी था होशकुन
गुल को कितनी हसरतों से ख़ार देखते रहे //२
हम तो राह देखते थे उनके आने की मगर
वो हमारा सब्रे इन्तेज़ार देखते रहे //३
तोड़ते थे बेदिली से वो मकाने इश्क़, हम
टूटते मकाँ का इंतेशार देखते रहे //४
सख़्त जाँ बनाने दरम्यानी ऐतबार को
टूटता है कैसे ऐतबार, देखते रहे //५
देखते थे टकटकी निगाह से उन्हें भी हम
हैरतों से हम को भी मज़ार देखते रहे //६
सर्फ़ हो रही थी साँस साँस अपनी ज़िंदगी
उड़ रही थी धूल बेशुमार, देखते रहे //७
हम गिरीबाँ चाक होके देखते थे उनकी सू
वो हमारा ज़ख्मे आश्कार देखते रहे //८
आ रही थी लाश सरहदों से मरने वालों की
रोके रिश्ते दार ज़ार ज़ार देखते रहे //९
हम किसी फ़क़ीर की तरह जहाँ से चल दिए
जो न थे तबा से बुर्दबार, देखते रहे //१०
ले गए उड़ा के माल साहिबाने इक़्तेदार
जो थे इनके सच में दावेदार, देखते रहे //११
जब भी बात इश्क़ में उठी जफ़ा ओ ज़ुल्म की
लोग क्यों तुझे ही बार बार देखते रहे //१२
जैसे कोई देखता है अपने घर को टूटता
राज़ हम यूँ कूचा ए निगार देखते रहे //१३
~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
इंतेशार- बिखराव; ज़ख्मे आश्कार- प्रकट घाव; बुर्दबार- शांतचित्त, गंभीर, सहनशील; साहिबाने इक़्तेदार- हैसियत वाले लोग; निगार- प्रेमिका
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब, ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया. सादर.
आ. भाई राजनवादवी जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय तेज वीर सिंह साहब, आदाब. ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया. सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय राज नवादवी जी।बेहतरीन गज़ल।
हम तो राह देखते थे उनके आने की मगर
वो हमारा सब्रे इन्तेज़ार देखते रहे //३
आदरणीय जनाब नरेन्द्र सिंह साहब, ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का दिले से शुक्रिया. सादर,
खूब सुन्दर रचना , आदरणीय
आदरणीय समर कबीर साहब, ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया. सादर.
जनाब राज़ साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल है,बधाई स्वीकार करें ।
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