राजा ये सोचता है कि प्यादा मज़े में है
प्यादा ये सोचता है कि राजा मज़े में है
लंगड़ा ये सोचता है कि अंधा मज़े में है
अंधा ये सोचता है कि लंगड़ा मज़े में है
हर नाज़ नखरे दिल के उठाता है ज़िस्म ये
पर दिल ये सोचता है कि गुर्दा मज़े में है
गुल के बिना वुजूद तो इसका भी कुछ नहीं
पर सोचता गुलाब कि काँटा मज़े में है
उस वक्त चढ़ गई थी हवाओं की त्योरियां
जलता हुआ चिराग़ जो देखा मज़े में है
वो उड़ गया कफ़स की सभी तोड़ तीलियां
सैयाद सोचता रहा तोता मज़े में है
गुज़रा है कितने दर्द से पैकर ये तब मिला
पत्थर मगर ये सोचता हीरा मज़े में है
क्या हाल कब्र का है ये मुर्दा ही जानता
जिंदा मगर ये सोचता मुर्दा मज़े में है
हर ज़ुल्म ठोकरों का वो चुपचाप सह गया
लेकिन ये आबला कहे जूता मज़े में है
आये थे ख़ैरियत को मेरी पूछने मगर
पल भर रुके चले गये सोचा मज़े में है
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० फूल सिंह जी हार्दिक आभार बहुत बहुत शुक्रिया
आद० नरेन्द्र सिंह जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
वक्त को उजागर करती सूंदर रचना
बहुत सूंदर बधाई
हार्दिक बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी।खूब सुन्दर रचना ।
आद० डॉ. आशुतोष जी प्रणाम .आपको ये मजाहिया गज़ल पसंद आई दिल से बेहद शुक्रिया .
आद० तेजवीर सिंह जी ,आपको ये मजाहिया गज़ल पसंद आई दिल से बहुत बहुत शुक्रिया आपका
आदरणीया राजेश जी आज बहुत दिनों बाद मंच पर आना हुआ और आते ही आपकी इस शानदार मजेदार ग़ज़ल को पढने का सुअवसर मिला इस रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
आ. राजेश दी, सादर अभिवादन, बेहतरीन गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी।बेहतरीन गज़ल।
गुल के बिना वुजूद तो इसका भी कुछ नहीं
पर सोचता गुलाब कि काँटा मज़े में है
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