घर में किसी के और अब अनबन कोई न हो
सूना पड़ा हमेशा ही आगन कोई न हो।१।
कुछ तो सहारा दो उसे हँसने जरा लगे
होकर निराश घुट रहा जीवन कोई न हो।२।
झुकना पड़े तनिक तो खुद झुकना सदा ही तुम
यारो मिलन की राह में उलझन कोई न हो।३।
आओ बनायें आज फिर ऐसा समाज हम
ओढ़े बुढ़ापा जी रहा बचपन कोई न हो।४।
जल जाएँ जिसकी आग से मासूम बच्चियाँ
डूबा हवस में इस तरह यौवन कोई न हो।५।
संसद में उनको जाने से अब के तो रोकिये
कोशिश है जिनकी और अब मंथन कोई न हो।६।
वारिस उन्हीं के आजकल बस्ती जला रहे
जिनको थी फिक्र आग में गुलशन कोई न हो।७।
हाकिम कोई तो ऐसा अब हमको खुदा तू दे
शासन में जिसके लूटता जनधन कोई न हो।८।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन ।गजल पर विस्तृत टिप्पणी व प्रशंसा के लिए आभार ।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"जी।बेहतरीन गज़ल।
संसद में उनको जाने से अब के तो रोकिये
कोशिश है जिनकी और अब मंथन कोई न हो।६
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
मतले के सानी मिसरे में 'आगन' को "आँगन"कर लें ।
जल जाएँ जिसकी आग से मासूम बच्चियाँ
डूबा हवस में इस तरह यौवन कोई न हो।५।........अति सुंदर। सामयिक।
संसद में उनको जाने से अब के तो रोकिये
कोशिश है जिनकी और अब मंथन कोई न हो।६। .......देश की राजनीति पर हकीकत का उल्लेख। अति सुंदर।
वारिस उन्हीं के आजकल बस्ती जला रहे
जिनको थी फिक्र आग में गुलशन कोई न हो।७।...........लाजवाब शेर है।
हाकिम कोई तो ऐसा अब हमको खुदा तू दे
शासन में जिसके लूटता जनधन कोई न हो।८। ......देश के प्रति आम आदमी की भावना का प्रतीक। अति सुंदर।
पूरी गज़ल ही सुंदर व तारीफ के काबिल। बधाई स्वीकार करें आदरणीय लक्ष्मण धामी जी।
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