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वेदना के पल कुँवारे ले चलो
कुछ तो जीने के सहारे ले चलो
दिल बहुत मायूस है परदेस में
बस हमें अब घर हमारे ले चलो
झील सी आंखों में हैं खामोशियाँ
थोड़े से सपने उधारे ले चलो
मैकदे में बंटती है अब भी शिफा
मैकदे में ज़ख्म सारे ले चलो
दुनिया मे महफूज कोई भी नहीं
साथ कितने भी सहारे ले चलो
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
सभी सम्मानीय ,आदरणीय गुणी जनों का हार्दिक आभार
सादर
भाई मनोज जी, सबसे पहले तो अच्छी ग़ज़ल और अलग अंदाज़ अशार के लिए बधाई. अब आपकी ग़ज़ल पर आते है.
///वेदना के पल कुँवारे ले चलो
कुछ तो जीने के सहारे ले चलो
--मतला पढने में अच्छा लग रहा है.
/////दिल बहुत मायूस है परदेस में
बस हमें अब घर हमारे ले चलो
---- घर तो परदेस में भी होता है. देस अब हमको हमारे ले चलो. कुछ इस तरह कीजिये
////झील सी आंखों में हैं खामोशियाँ
थोड़े से सपने उधारे ले चलो
----झील, ख़ामोशी, सपने. इस शेर में तो रब्त ही नहीं आ रहा.
///मैकदे में बंटती है अब भी शिफा
मैकदे में ज़ख्म सारे ले चलो
---अच्छा शेर है
////दुनिया मे महफूज कोई भी नहीं
साथ कितने भी सहारे ले चलो
---अच्छा है
आदरणीय मनोज कुमार जी, आदाब, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए मुबारकबाद. सादर.
जनाब मनोज कुमार अहसास जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
अरकान के बारे में क़मर साहिब बता ही चुके हैं ।
आ. भाई मनोज जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
बहुत बहुत शुक्रिया कमर जौनपुरी साहब
दरअसल दूसरी ग़ज़ल पोस्ट करनी थी और ये पोस्ट कर दी बहर पहले ही लिख दी थी
याद दिलाने के लिए हार्दिक आभार
सादर
अच्छी ग़ज़ल हुई है जनाब मनोज कुमार एहसास जी। मुबारकबाद कबूल करें।
बहर आपने अलग लिख रखी है।
इसकी बहर है
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