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बज़्मे अग्यार में नासूरे नज़र होने तक
क्यों रुलाता है मुझे दीदा-ए-तर होने तक //१
कितने मुत्ज़ाद हैं आमाल उसके कौलों से
टुकड़े करता है मेरा लख़्ते जिगर होने तक //२
गिर के आमाल की मिट्टी में ये जाना मैंने
तुख़्म को रोज़ ही मरना है शज़र होने तक //३
मौत का ज़ीस्त में मतलब है अबस हो जाना
ज़िंदा हूँ हालते बेजा में गुज़र होने तक //४
बूदे आफ़ाक़ी का दरमाँ नहीं है दुनिया में
जीना पड़ता है फ़रिश्तों की नज़र होने तक //५
क़ब्ल मिलने से तेरे कब था सुकूं जीने में
रहगुज़ारों में भटकते रहे घर होने तक //६
उसने शाइस्तगी से क़त्ल मेरा कर डाला
ज़िंदा रक्खा है किसे उसने ख़बर होने तक //७
दुख में फ़ौरन ही दवा काम नहीं करती है
दर्द को झेलना पड़ता है असर होने तक //८
ख़्वाबबीदा है अगरचे ये ज़माना शब में
रात ख़ुद जागती है वक़्ते सहर होने तक //९
इश्क़ उसका है फ़ुसूं 'राज़' ख़यालों में मेरे
रेग का सीप में तब्दीले गुहर होने तक //१०
~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
बज़्मे अग्यार- ग़ैर लोगों की महफ़िल; मुत्ज़ाद- परस्पर विरोधी, विपरीत; आमाल- कर्म; कॉल- कथन; लख्ते जिगर- जिगर का टुकड़ा, प्यारा होना; तुख्म- बीज; शज़र- पौधा, पेड़; अबस- निष्फल, व्यर्थ; बूदे आफ़ाकी- सांसारिक अस्तित्व; दरमाँ- इलाज; ख़्वाबबीदा- ख़्वाब में डूबा; सदफ़- सीप; तख़लीक़े गुहर- मोती की रचना
Comment
जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'बूदे आफ़ाक़ी की दरमाँ नहीं है दुनिया में'
इस मिसरे में 'की' को "का" कर लें ।
' सदफ़े नाचीज़ में तख़लीक़े गुहर होने तक'
इस मिसरे में 'सदफ़े' शब्द ग़लत है सहीह होगा ",सदफ़-ए-",अगर सहीह शब्द रखा तो मिसरा बेबह्र हो जाएगा,देखें ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आदाब। ग़ज़ल में शिरकत और हौलसा अफ़ज़ाई का दिल से शुक्रिया। सादर।
आ. भाई राज नवादवी जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
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