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बहुत से लोग बेेेघरर हो गए हैं ।
सुना हालात बदतर हो गए हैं ।।
मुहब्बत उग नहीं सकती यहां पर ।
हमारे खेत बंजर हो गए हैं ।।
पता हनुमान की है जात जिनको।
सियासत के सिकन्दर हो गए हैं ।।
यहां हर शख्स दंगाई है यारो ।
सभी के पास ख़ंजर हो गए हैं ।।
सलीका ही नहीं चलने का जिनको ।
वही भारत के रहबर हो गए हैं ।।
लुटेरे मुल्क़ में बेख़ौफ़ हैं अब ।
बदन पर सब के खद्दर हो गए हैं ।।
मेरा धन लूटकर देते जो तुमको ।
वही हाकिम मुकर्रर हो गए हैं ।।
करप्शन की सुनामी देखिए तो ।
नदी नाले समंदर हो गए हैं ।।
कलम यूँ ही उगलती आग कब है ।
मुझे भी गम मयस्सर हो गए हैं ।।
अदालत में तो उसकी हार तय है ।
तुम्हारे साथ अफ़सर हो गए हैं ।।
डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय त्रिपाठी जी..सादर
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे दिली मुबारकबाद. सादर.
आ0 गुरुदेव समर कबीर सर ग़ज़ल तक आने के लिए तहे दिल से शुक्रियः । सादर नमन ।
अब ठीक है ।
आ0 कबीर सर सादर नमन । बिल्कुल सही कहा आपने जल्दबाजी में गलती हो गयी है ठीक करता हूँ
बहुत से लोग बेघर हो गए हैं ।
सुना हालात बदतर हो गए है।।
दूसरा
मेरा धन लूटकर देते जो तुमको।
वही हाकिम मुकर्रर हो गए हैं ।।
जनाब डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
मतले के दोनों मिसरों में "तर" की क़ैद हो गई है,कोई एक मिसरे का क़ाफ़िया बदलें ।
' सलीका ही नहीं चलने का जिसको
इस मिसरे में 'जिसको' शब्द को "जिनको" कर लें ।
' जो हमको चूस कर देते हैं तुमको ।
वही हाकिम मुकर्रर हो गए हैं'
इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं है,क्या चूस कर किसको देते हैं?
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