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सुहानी शाम का मंज़र अजीब होता है
भुला दिया था जिसे वो क़रीब होता है//१
वो पाक जाम मिटा दे जो प्यास सदियों की
किसी किसी के लबों को नसीब होता है//२
मिली जहाँ में जिसे भी दुआ ग़रीबों की
नहीं वो शख़्स कभी बदनसीब होता है//३
वफ़ा से दे न सका जो सिला वफ़ाओं का
वही जहान में सबसे ग़रीब होता है//४
करे मुआफ़ जो छोटी बड़ी ख़ताओं को
वही तो जीस्त में सच्चा हबीब होता है//५
क़लम की धार से जो काट दे जहालत को
वही समाज का आला अदीब होता है//६
बुझा सका न किसी की भी प्यास जो सागर
अथाह आब लिए बदनसीब होता है//७
क़मर लुटाते रहो रौशनी ज़माने में
अँधेरे में नहीं कोई क़रीब होता है//८
-- क़मर जौनपुरी
मौलिक, अप्रकाशित
Comment
जनाब क़मर जौनपुरी साहिब आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,मुबारकबाद पेश करता हूँ. सादर.
क़लम की धार से जो काट दे जहालत को
वही समाज का आला अदीब होता है
बहुत ख़ूब! बढ़िया ग़ज़ल हुई है आदरणीय क़मर जौनपुरी जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
आदाब मोहतरम। बहुत बहुत शुक्रिया खूबसूरत इस्लाह के लिए।
जनाब क़मर जौनपुरी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' बुझा सका न किसी की भी प्यास सागर ये
अथाह आब लिए बे-नसीब होता है'
इस शैर को यूँ कर लें,शिल्प कमज़ोर है:-
'बुझा सका न किसी की भी प्यास जो सागर
अथाह आब लिये बदनसीब होता है'
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