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प्यार का तुमने दिया मुझको सिला कुछ भी नहीं,
मिट गये हम तुझको लेकिन इत्तिला कुछ भी नहीं।
कोख में ही मारकर मासूम को बेफ़िक्र हैं,
फिर भी अपने ज़ुर्म का जिनको गिला कुछ भी नहीं।
राह जो खुद हैं बनाते मंजिलों की चाह में ,
मायने उनके लिए फिर काफिला कुछ भी नहीं।
हौंसले रख जो जिये पाये सभी कुछ वे यहाँ,
बुज़दिलों को मात से ज्यादा मिला कुछ भी नहीं।
ज़िंदगी चाहें तो बेहतर हम बना सकते यहाँ,
ज़ीस्त में ग़र रंजोगम का दाखिला कुछ भी नहीं।
रहते जो हर हाल में खुश वो कहाँ कहते कभी,
*जिंदगी में जिंदगी जैसा मिला कुछ भी नहीं*।
चाह 'शुचिता' प्रेम की रख मंजिलें करती है तय,
प्रेम जीवन में अगर तो अधखिला कुछ भी नहीं।
मौलिक व अप्रकाशित
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संशोधित
प्यार का तुमने दिया हमको सिला कुछ भी नहीं
मिट गये हम तुझको लेकिन इत्तिला कुछ भी नहीं
कोख में ही मारकर मासूम को बेफ़िक्र हैं
फिर भी अपने ज़ुर्म का उनको गिला कुछ भी नहीं।
राह जो खुद हैं बनाते मंजिलों की चाह में ,
अस्ल में उनकी नज़र में काफिला कुछ भी नहीं।
हौसले रख जो जिये पाये सभी कुछ वे यहाँ
बुज़दिलों को मात से ज्यादा मिला कुछ भी नहीं।
ज़िंदगी चाहें तो हम बहतर बना सकते मगर
ज़ीस्त में हो रंज-ओ-ग़म का दाखिला कुछ भी नहीं।
रहते जो हर हाल में खुश वो कहाँ कहते कभी
*जिंदगी में जिंदगी जैसा मिला कुछ भी नहीं*।
राह'शुचिता' प्रेम की ग़र मंजिलें मिल जायेगी
प्रेम जीवन में अगर तो अधखिला कुछ भी नहीं।
मौलिक व अप्रकाशित
डॉ.
सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
हार्दिक आभार आदरणीय भाई समर कबीर जी। आपने गज़ल की बारीकियों से अवगत कराते हुए मेरा मार्गदर्शन किया है। सच तो यह है कि गजल पर मेरी अच्छी पकड़ अभी तक नहीं है, सीखने का प्रयास कर रही हूँ, आपका मार्गदर्शन यूँ ही मिलता रहेगा तो सीखना आसान हो जाएगा।
आपका अतिशय आभार समर भाई।
मुहटरमा सुचिसंदीप अग्रवाल जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'प्यार का तुमने दिया मुझको सिला कुछ भी नहीं,
मिट गये हम तुझको लेकिन इत्तिला कुछ भी नहीं'
मतले में शुतरगुरबा दोष है,ऊला मिसरे में 'मुझको' की जगह "हमको" कर लें तो ये ऐब निकल जायेगा ।
'फिर भी अपने ज़ुर्म का जिनको गिला कुछ भी नहीं'
इस मिसरे में 'जिनको' की जगह "उनको" शब्द उचित होगा ।
'मायने उनके लिए फिर काफिला कुछ भी नहीं'
इस मिसरे का शिल्प कमज़ोर है,और इसमें 'मायने' शब्द ग़लत है सहीह शब्द है "मा'ना",इस मिसरे को यूँ कर सकती हैं:-
"अस्ल में उनकी नज़र में क़ाफ़िला कुछ भी नहीं'
'हौंसले रख जो जिये पाये सभी कुछ वे यहाँ'
इस मिसरे में 'हौंसले' को "हौसले" कर लें ।
'ज़ीस्त में ग़र रंजोगम का दाखिला कुछ भी नहीं'
इस मिसरे में रदीफ़ बदल रही है, 'कुछ भी नहीं' की जगह "कुछ भी न हो' हो रही है,इस मिसरे को यूँ कर सकती हैं:-
'ज़िन्दगी चाहें तो हम बहतर बना सकते मगर
ज़ीस्त में हो रंज-ओ-ग़म का दाख़िला कुछ भी नहीं'
मक़्ते के दोनों मिसरों में रब्त नहीं,भाव भी स्पष्ट नहीं,देखिये ।
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