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अपनों का दर्द- लघुकथा

दो तीन बार सोमारू आवाज़ लगा चुका था, हर बार वह उसकी तरफ उचटती नजर से देखता और खाट पर लेटे लेटे सोचता रहा. अंदर से तो उसे भी लग रहा था कि उसको जाना चाहिए लेकिन फिर उसका मन उसे रोक देता. वैसे तो बात बहुत बड़ी भी नहीं थी, इस तरह की घटनाओं से उसको अक्सर दो चार होना ही पड़ता था. लेकिन अगर कोई बड़ी जात वाला यह सब कहता तो उसे तकलीफ नहीं होती थी.
"दद्दा, जल्दी चलो, सब लोग तुम्हरी राह देखत हैं", सोमारू ने इस बार थोड़ी तेज आवाज में कहा.
वह खटिया से उठा और बाहर निकलकर लोटे से मुंह धोने लगा. गमछी से मुंह पोंछते हुए उसने सोमारू से कहा "अच्छा इ बताओ, उहाँ सरवन भी है का?
सोमारू ने हामी में सर हिलाते हुए कहा "सब लोग जुटल हैं उहाँ, आज रस्ता का फैसला हो जाई".
सरवन भी वहीँ है, उसको देखते ही उसके तन बदन में आग लग जायेगी. अब का करे, जाना भी जरुरी है और सरवन न भेंटाये, यह भी मन में है.
"अच्छा सोमारू, एक काम करना हमरे लिए, सरवन को हमसे दूर ही रखना", वह चलते चलते बोला.
सोमारू ने सर हिलाया और थोड़े अचरज से बोला "का हुआ दद्दा, ऊ सरवन से कउनो बात हो गईल का".
उसने सोमारू के सर पर एक थप्पी मारी "ऊ दिन तुम भी तो थे जब सरवन हमको ऊ सब बात बोला था. बताओ उहो कउनो बर्दास्त करने की बात थी".
सोमारू ने पलटकर उसको देखा "सरपंच तो तुमको रोज दस बार बोलत है तब कउनो दिक्कत नाहीं होत है. फिर सरवन तो अपना भाई बिरादर है, तुमको मलेक्ष बोल दिया तो ओसे कौन दिक्कत?"
वह चुपचाप चलता रहा, अब सोमारू को कैसे समझाए कि ऊंच जात वाला बोले, तब तो ठीक है लेकिन उसका अपनी जात वाला ही यह सब बोले तो तकलीफ तो होगी ही ना.


मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by नाथ सोनांचली on January 16, 2019 at 6:32am

आद0 विनय कुमार जी सादर अभिवादन। बढ़िया लघुकथा लिखी आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by Samar kabeer on January 15, 2019 at 2:39pm

जनाब विनय कुमार जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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