(14 मात्राओं का सम मात्रिक छंद, सात सात मात्राओं पर यति, चरणान्त में रगण अर्थात गुरु लघु गुरु)
जागो उठो, हे लाल तुम, बनके सदा, विकराल तुम ।
जो सोच लो, उसको करो, होगे सफल, धीरज धरो।।
भारत तुम्हें, प्यारा लगे, जाँ से अधिक, न्यारा लगे।
मन में रखो, बस हर्ष को, निज देश के, उत्कर्ष को।।
इस देश के, तुम वीर हो, पथ पे डटो, तुम धीर हो।
चिन्ता न हो, निज प्राण का, हर कर्म हो, कल्याण का।।
हो सिंह के, शावक तुम्हीं, भय हो तुम्हें, किंचित नहीं।
इस बात को, तुम जान लो, होगा वही, जो ठान लो।।
रण में तुझे, जो मार दे, या फन उठा, फुफकार दे।
ऐसा यहाँ, जग में कहीं, है अब तलक, जन्मा नहीं।।
जय हिंद का, उदघोष हो, रण मध्य में, जब रोष हो।
मिल के करो, तब गर्जना, जड़ शून्य हो, अरि चेतना।।
इस देश का, कुछ कर्ज है, उसको निभा, जो फर्ज है।
पहले नहीं, तू वार कर, पर हो अगर, संहार कर।।
कोई अगर, हो भूल भी, या हो कहीं, गर शूल भी।
उसका करो, तुम सामना, भय से नहीं, तुम काँपना।।
पर्वत नदी, तूफान हो, या शत्रु कुछ, बलवान हो।
तुम मौत बन, टूटो वहीं, ना जा सके, अरिदल कहीं।।
गूँजे गगन, आलाप से, कापें धरा, पद चाप से ।
जब चल पड़ो, ललकार के, जय हिंद को, जयकार के।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0 महेश्वरी कनेरी जी सादर अभिवादन। रचना पर आपकी उपस्थिति और सुंदर उत्साह बढ़ती प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ,, आभार आपका
भाई सुरेन्द्र नाथ जी आहूत सुन्दर रचना हुई है बशाई और शुभकामना
आद0 महेंद्र जी सादर अभिवादन। प्रतिक्रिया से नवाजने के लिए आभारी हूँ।
बहुत ख़ूब रचना हुई है आदरणीय सुरेन्द्र जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
आद0 तेजवीर सिंह जी सादर अभिवादन। रचना अच्छी लगी तो लिखना सार्थक हुआ। हृदय तल से आभार आपका
हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी।बेहतरीन रचना।
रण में तुझे, जो मार दे, या फन उठा, फुफकार दे।
ऐसा यहाँ, जग में कहीं, है अब तलक, जन्मा नहीं।।
जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आदाब,मधुमालती छन्द में अच्छी रचना हुई है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
"चिन्ता न हो, निज प्राण का"
इस पंक्ति में 'चिन्ता' शब्द स्त्रीलिंग है,देखिये ।
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